लघुकथा : आवाज़
” आइये सुधीर भाई आइये, आज राह भूल कर कैसे चले आये?”
” मैं तो राह नहीं भूला प्रोफेसर साहब पर आप ही भूल गये कि कुछ दिन पहले हम एक बिनती ले कर आपके पास आए थे।”
” याद है सुधीर भाई ! आपने कहा था,’ आप इस ब्लॉक के महासचिव हैं, आप चाहें तो यहाँ के सारे वोट हमें मिल सकते हैं ‘ और मैंने कहा था…
‘…जरूर मिल सकते हैं, अगर आप यहाँ की सारी सड़कें ठीक करवा दें और स्ट्रीट लाईट्स लगवा दें ‘, यही कहा था न आपने?
” और आपका कहना था कि अभी मुमकिन नहीं, चुनाव जीतते ही सबसे पहले यही काम करवाएंगे। इस पर मैंने कहा था कि पिछली बार भी आपने यही कहा था पर चुनाव जीतते ही सब भूल गये। आप लोगों का विश्वास खो बैठे हैं… इसे हासिल करने के लिये अब आपको ये काम पहले करवाने होंगे। प्रसार-प्रचार पर इतना पैसा खर्च कर रहे हैं तो जन-सेवा में पीछे क्यों? ये काम करवाइये फिर आपकी जीत पक्की।”
” तो हमने किया न अपना वादा पूरा? और आपने क्या किया? हमारी भारी हार बता रही है कि आपने तनिक सी भी कोशिश नहीं की,” खिन्न स्वर में कहा सुधीर भाई ने।
” आपकी हार का मुझे बेहद अफसोस है सुधीर भाई! मैंने जी तोड़ कोशिश की थी उनकी आवाज़ आप तक और आपकी आवाज़ उन तक पहुँचाने की पर उनकी आवाज़ तो आपने सुन ली और उनकी मांग भी पूरी कर दी, लेकिन आपकी आवाज़ उन तक पहुँच कर भी नहीं पहुँच पाई तो मैं क्या करूँ सिवाय आपसे माफी मांगने के,” हाथ जोड़ते हुए विनम्र स्वर में कहा प्रोफेसर साहब ने।
— कमल कपूर