लघुकथा

समाधान

“पूरे तीन साल बाद हम भारत, अपने घर जा रहे हैं, न जाने माँ-पिता कैसे होंगे”। उत्साह से भरपूर देवांश ने जाने की तैयारियों में लगी दक्षा को संबोधित करते हुए कहा। अमेरिका में जॉब लगने के बाद उनको लगभग १० वर्ष हो चुके थे। इस बीच वे दो बच्चों के माँ-पिता भी बन गए। सात वर्षों तक तो वे हर साल भारत जाते रहते थे, लेकिन इस बार फासला लंबा हो गया था।
“ठीक ही होंगे, हर दिन तो फोन पर बातचीत होती ही है न।” दक्षा ने रूखा सा उत्तर दिया.
“मगर सामने देखने का आनंद ही और होता है डियर”,
वो बात तो है देव, लेकिन इस बार हम होटल में ही रुकेंगे, अब हमारे बच्चे भी घूमने लायक हो गए हैं तो मैं घर जाकर चूल्हे-चौके में नहीं उलझने वाली।
“यह कैसे हो सकता है दक्षा, कि माँ-पिता के होते हुए हम होटल में रहें? क्या तुम उनका अपनापन, वो सहयोग भूल गई हो, जब हर बार उन्होंने हमारे छोटे-छोटे बच्चों को सँभालकर हमें घूमने-फिरने की आज़ादी दी। अब तो समय आया है कि हम उनको भी घर से बाहर अपने साथ घूमने-फिरने ले जाएँ”।
दक्षा भला भारत जाने के वे शुरुवाती साल, जब बच्चे नहीं थे, कैसे भूल सकती थी कि वे जहाँ भी घूमने जाते, देवांश माँ-पिता को भी चिपकाकर चलते थे, लेकिन बाहर से बोली-
“इसके लिए मैं उनका आभार मानती हूँ देव, लेकिन इस बार हम पूरे एक महीने के लिए जा रहे हैं तो मैं वहाँ इत्मिनान से घूमना-फिरना चाहती हूँ। और हम माँ-पिता से मिलने जाते रहेंगे न प्लीज़…”
देवांश उलझन में पड़ गया। पत्नी को नाराज़ करके तो छुट्टियों का आनंद ही किरकिरा हो जाएगा और माँ-पिता को तो किसी हालत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
लेकिन समस्याएँ हैं तो समाधान भी मिल ही जाता है, उसने चुटकी बजाते हुए कहा-
“ठीक है डियर, मैं होटल में रहने की व्यवस्था करवा देता हूँ। अब ज़रा बाजार होकर आता हूँ उनके लिए कुछ सामान लेने हैं”।
हवाई जहाज़ के भारत-भूमि पर उतरते ही देवांश ने टैक्सी तय करके ड्राइवर को सीधे होटल चलने को कहा तो दक्षा ने मन ही मन कॉलर ऊँची करके स्वयं को दाद देते हुए कहा- “लो दक्षा, कितनी आसानी से तुमने सास-ससुर का पत्ता काट दिया।”
होटल पहुँचकर उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई। देवांश ने उसे बताया कि उसने किचन, बैठक, और भोजन कक्ष के अलावा दो बेडरूम बुक किए हैं।
दक्षा हैरत में पड़कर बोली-
“लेकिन इतना सब हम क्या करेंगे देव, व्यर्थ ही खर्च बढ़ नहीं जाएगा”?
देवांश हँसते हुए बोला-
“यह नीचे वाला कमरा माँ-पिता के लिए है डियर, हम वहाँ रहने नहीं जा सकते, पर वे तो यहाँ आ सकते हैं न और अपनी इच्छा से हमारे साथ घूमने-फिरने के अलावा कुछ बना पका भी सकते हैं। तुम ऊपर जाकर कमरा सेट करो तब तक मैं उन्हें लेकर आता हूँ”।

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- kalpanasramani@gmail.com