कविता

एक बिटिया का सपना

बचपन से एक ही सपना था पिता का शान बढ़ाना है,
बोझ नहीं होती हैं बेटियाँ ये साबित कर दिखलाना है।

इस समाज में मैं बनाऊंगी अपनी अलग पहचान,
मुझे देखकर लोग बिटिया को देंगे ऊँची उड़ान।

मध्य वर्ग में जन्मी फिर भी उड़ने का लक्ष्य बनाया,
और अपने सपनों में मैंने हौंसले का पंख लगाया

अच्छे स्कूल कॉलेजों पढ़ने की थी कहाँ औकात,
जिज्ञासु मन में लगन थी कि नहीं देखता दिन या रात।

कौन रोकेगा कस्ती उसकी जो चीरता है तूफान को,
फूले नहीं समाते पिताजी देखकर मेरे परिणाम को।

तब मुझे भी लगता था मैं तो आगे बढ़ रही हूँ,
अपने सपनों की ऊँची मंजिल पे चढ़ रही हूँ।

लेकिन मैं तो बन गयी थी पिता की बड़ी बोझ,
मुझे नाजों से पाले थे अच्छे वर रहे थे खोज।

मुझे नहीं पता था दहेज तो लाईलाज बिमारी है,
नाज उठाने के लिए बेटा का बाप होना जरुरी है।

तभी समझी बेटी के घर क्यों होती नहीं बधाई,
क्यों होता है भ्रूण हत्या क्यों बजती न शहनाई।

काश नौकरी जैसा शादी में भी होता कम्पटीशन,
फिर न होता बेमेल शादी न रहता दहेज का टेंशन।

बिटिया का क्या मोल है जग में अब हमने ये जाना,
हे भगवान अगले जनम मुझे बिटिया नहीं बनाना।
– दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।