लेखसामाजिक

ये किस दौर में हम जीने लगे हैं…

ये किस दौर में हम जीने लगे हैं…

आइये खुलकर जीयें और इस जीवन को मिसाल बना दें…!!

जब हम छोटे थे तो सपने देखा करते थे। बड़े होंगे , बड़े होकर ये करेंगे – वो करेंगे । कोई कहता ये काम करो हम झट उत्तर देते कि अभी तो जम छोटे हैं , बड़ा तो होने दो आपके बोलने से पहले ही हम ये कर देंगे। बचपन के न जाने कितने हसीं और प्यारे पल हमने इसी उधेड़बून में गुजर दिया कि हम बड़े होंगे तो क्या होगा,कैसा होगा?? और उसी रोमांच में ना जाने कितने गौरवांकित होकर  सपनों में खो जाया करते थे। खुद को उस वक़्त का सबसे शक्तिशाली इंसान समझने की एक अजीब ही सोच में जीने लगते थे। बचपन की उन यादों से आगे बढ़ते बढ़ते एक एक सीढ़ी चढ़ते चढ़ते आज इतने बड़े हो गए कि किसी की तरफ देखना भी गँवारा नहीं। पहले जिन मेहमानों की ख़ुशी से मन में उत्साह और उमंग जागती थी,जिनका सहारा लेकर पढ़ाई से छुट्टी और घूमने की चाह जागती थी,आज उन्हीं मेहमानों को देखकर दिल में साँप मचलने लगते हैं।

क्यों इतने बड़े हो गए कि जीवन की सच्चाई को ही झुठला बैठे ? क्यों इतने आगे आ गए कि हाथ थामने वालों को ही अपना दुश्मन और प्रतिद्वंदी मान बैठे ? विकास के जिन पलों में विकसित होकर हम आसमां छूना चाहते थे, विजयपथ पर बढ़कर जिन लोगों का सहारा बनना चाहते थे आज उन्हीं की सूरत से क्यों इतना बैर मन में बैठ गया? जिन त्योहारों में पहले खुशियाँ और उत्साह होता था,जिनमें जीने का उसका इन्तजार होता था क्यों आज उन्हीं त्योहारों को सर का दर्द बना बैठे हम ? त्यौहार तो खुशियों की सौगात हुआ करते थे। इन्हीं में अपनों की खुशियाँ और अपनों की करीबियत का एहसास हुआ करता था। आज इन्हीं त्यौहारों से हम न जाने क्यों इतना डरने लगे हैं?

कहीं पढ़ा था कि मानव अपने विकास के चरम पर है। पर क्या सही अर्थों में यही विकास है?? परिस्थिति को देखते हुए तो यह कहना लाज़मी हो जाता है कि मानव अपने पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। और हो भी क्यों ना। क्योंकि जिस विकास का जमा पहनकर मानव जी रहा है उससे उसको क्या मिलता है?? पैसा है,दौलत है पर अपनों की कमी है। ऐसो आराम है,नौकर चाकर हैं लेकिन भरोसा किसी पर नहीं। कहने को तो सारी दुनिया साथ है पर अँधेरे में हाथ थाम ले वो एक अपना ही नहीं । चक्रवाहन की सवारी में सीट बेल्ट बाँध कर जब सोचता है मानव कि क्या इसी तरह जिंदगी में भी उसे बाँध लिया है। सिर्फ चक्कों पर चलना,सुबह निकलना और गए आधी रात लौटना। जिन रुपयों की खातिर उसने सारी जिंदगी मेहनत की आखिरकार उसे ही छोड़ जाना है इक रोज़। एक घर काफ़ी था रहने के लिए पर लालसा ने इतने घर खरीद लिए कि अब एक के भी एक कमरे में सुकून नहीं है। किताबों में पढ़ा था कि चैन से सोने से स्वास्थ्य को उत्तम रख सकते हैं पर बिस्तर पर लेट कर सोने की चैन डालकर सोने का आनंद ही हम गँवा बैठे हैं। जिस माँ के शब्दों को न सुने तो सुबह नहीं होती थी आज उसी के बोलने से हमें परहेज़ होता है। जिस पिता के कांधों पर बैठकर आसमान को छुआ करते थे और एक रूपये की खातिर उनके पैर,सर और कमर दबाया करते थे , जिस पिता ने हमारी तबियत बिगड़ने पर अस्पतालों की ख़ाक छानी थी आज उसी पिता की दवा और उसके पहनावे से हम मुँह छुपाने लगे हैं। सही है हम बड़े हो गए। इतने बड़े हो गए कि अब सब हमसे छोटे दिखाई देने लगे हैं ।  हाँ हम बड़े बड़े हो गए , इतने बड़े हो गए कि मौत को भी रिश्वत देकर खरीद लेंगे। उससे कहेंगे कि ये सारे घर,बंगले जो जमीं पर  ख़रीदे हैं इन्हें भी हमारी आत्मा के साथ लेते चलना। मर्सटीज के बिन हमें लेने नहीं आना और हाँ मौत की रस्म भी किसी सात सितारा होटल की भांति ही होनी चाहिए । काश !!ऐसा हो पता कि ये मानव तू मौत को खरीद पाता। काश!! कफ़न में बीही जेब होती और आत्मा को शब्द होते तो जीवन की हकीकत तू समझ पाता कि जिन बातों के पीछे हमने अपना सारा जीवन गुजर दिया ,आखिरकार उनका कोई औचित्य ही नहीं था। जिसे पाने के लिए सारी उम्र भागे उनमें से एक भी चीज आपके साथ नहीं जाने वाली है। जिन लोगों को महत्त्व दिया उन्हीं ने आपकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए कोई बहाना तलाश कर लिया। जो आज तक आप सबके साथ करते थे वही आपके साथ हुआ।

काश…!! हम आज भी संभल जाएँ। जीवन की वास्तविकता को समझ कर इसके हर पल कोजीने की कोशिश करें। जिससे कि कल लोग कहें कि जियो तो इसकी तरह। मिसाल बन जाएँ उन लोगों के लिए जो निराश होकर बैठ गए हैं। दौलत जमा करने की बजाय कुछ दोस्त जमा करें। घर ,बंगले,गाड़ी के पीछे भागने से बेहतर होगा कि कुछ अच्छी बातें सीख लें जिसे आगे बढाकर परहित कर सकें। अपनों को बेवजह ही खुशियाँ देने लगें,बेवजह ही मुस्कुराएं, अपने चेहरे को आईने में देखकर खुद पर हँस कर तो देखें कि औरों पर हँसने से अच्छा तो खुद पर हँसना होता है। क्यों ना किसी ओ किसी रोज़ खाना खिलाकर देखें,क्यों ना किसी बुजुर्ग के पाँव दबाकर देखें। फिर एहसास करें कि हाँ कितने बड़े हो गए हम। क्यों ना आज ही के दिन घमंड और को त्याग दें और इसी पल से मुस्कुराना शुरू कर दें। और हमारे बारे में क्या सोचते हैं ये विचार को त्याग कर खुद के बारे में सोचना शुरू कर दें हम । क्यों ना बच्चों की तरह बेवजह के सवाल अब भी करें ,क्यों ना माँ की गोद मेसर रखकर कुछ देर कइ लिए शांति का अनुभव करें । क्यों न बेवज़ह ही किसी को गले लगाकर अपनत्व का एहसास कराएँ।  क्यों ना आज ही गाड़ी से उतार कर कभी पैदल चल कर धूलि का एहसास समझे। क्यों ना आज ही फिर से छोटे बन जाएँ। हाँ बड़े होकर तो सब खो जाता है इस बात को समझ कर क्यों ना आज फिर छोटे बन जाएँ हम। तन को पास नहीं बल्कि मन को पास लाने का प्रयास करें । जीने के लिए जीयें  और खुद से पहले सबके लिए जीयें।

कल के सपनों को पिरोकर जीने से अच्छा है आज में ही ख़ुशी, उमंग, उत्साह ,और प्रेम के मोती पिरोना शुरू कर दें और इस शरीर  की  नष्टता से पूर्व ही अपनी आत्मा को औरों में जीवित कर दें हम।

आइये खुलकर जीयें और इस जीवन को मिसाल बना दें।

 

रवि शुक्ल’प्रहृष्ट’

नासिक

रवि शुक्ला

रवि रमाशंकर शुक्ल ‘प्रहृष्ट’ शिक्षा: बी.ए वसंतराव नाईक शासकीय कला व समाज विज्ञानं संस्था, नागपुर एम.ए. (हिंदी) स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्व विद्यालय, नागपुर बी.एड. जगत प्रकाश अध्यापक(बी.एड.) महाविद्यालय, नागपुर सम्प्रति: हिंदी अध्यापन कार्य दिल्ली पब्लिक स्कूल, नासिक(महाराष्ट्र) पूर्व हिंदी अध्यापक - सारस्वत पब्लिक स्कूल & कनिष्ठ महाविद्यालय, सावनेर, नागपुर पूर्व अंशदायी व्याख्याता – राजकुमार केवलरमानी कन्या महाविद्यालय, नागपुर सम्मान: डॉ.बी.आर.अम्बेडकर राष्ट्रीय सम्मान पदक(२०१३), नई दिल्ली. ज्योतिबा फुले शिक्षक सम्मान(२०१५), नई दिल्ली. पुरस्कार: उत्कृष्ट राष्ट्रीय बाल नाट्य लेखन और दिग्दर्शन, पुरस्कार,राउरकेला, उड़ीसा. राष्ट्रीय, राज्य, जिल्हा व शहर स्तर पर वाद-विवाद, परिसंवाद व वक्तृत्व स्पर्धा में ५०० से अधिक पुरस्कार. पत्राचार: रवि शुक्ल c/o श्री नरेन्द्र पांडेय पता रखना है अन्दर का ही भ्रमणध्वनि: 8446036580