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प्रेम न हाट बिकाय

एक तो बसंत की रोमानियत उसपर वैलेंटाईंस हफ्ते का खुमार, प्रेम तो सर चढकर बोलेगा ही , लेकिन कई बार जेहन में सवाल आते है कि आखिर प्रेम की परिभाषा क्या है ? यूँ तो प्रेम का मखमली अहसास जन्म के साथ माँ के स्पर्श से ही शुरू हो जाता है । शायद इसीलिए ही माँ का प्रेम अतुलनीय तथा ईश्वरीय होता है और माँ से शुरू हुए इस अहसास की तालाश जीवन पर्यन्त बनने वाले हर खून के रिश्तों से लेकर उन रिश्तों में भी रहती है जिसे हम समाज के साथ रहते रहते बनाते है । चाहे वह पिता से पुत्र का रिश्ता हो , भाई -बहन का रिश्ता हो , पति- पत्नि का रिश्ता हो या दोस्ती का ही रिश्ता क्यों न हो, हमे हर रिश्ते में तालाश बस प्रेम की ही रहती है । लेकिन फिर भी जैसे ही हम समाज में प्रेम की बात करते है सबसे पहले मस्तिष्क पटल पर युगल जोड़ों का चित्र उभरता है । लेकिन क्या युवा अवस्था में किया जाने वाला युगल जोड़ों का प्रेम ही सिर्फ एक मात्र प्रेम है ? निःसंदेह आपका उत्तर भी मेरी तरह नकारात्मक ही होगा क्योंकि वास्तव में प्रेम इतना संकुचित नहीं अपितु बेहद विस्तृत है । प्रेम यूँ तो कुछ पाने खोने से कही अधिक समर्पण का अहसास है । जिसमे इंसान अपनी फिक्र से अधिक उसकी फिक्र करता है जिससे वह प्रेम करता है । लेकिन प्रेम को परिभाषित करने में जीवन के साथ उस अमुख व्यक्ति के निज प्रेम का अनुभव भी बहुत मायने रखता है ।
महान नाटककार और नॉवेल पुरस्कार विजेता जाॅर्ज वर्नाड शाॅ प्रेम को परिभाषित करते कहते है ” दुनिया में दो ही दुख है एक वो जो तुम चाहो वो मिल जाए और दूसरी जो तुम चाहो वो तुम्हें नहीं मिले , वो आगे कहते है कि ,और मै कहता हूँ कि दूसरा दुख पहले से कहीं बड़ा है । अर्थात जिसे हम प्रेम करते है अगर वो हमे मिल जाए तो धीरे धीरे हमारे प्रेम का भ्रम टूट जाता है जो हमे दुख देता है ।
हम ये तो नहीं कह सकते की प्रेम का यह दर्शन प्रेम को पूर्णतः परिभाषित करता है लेकिन हम इसे बिल्कुल खारिज भी नहीं कर सकते है । आज के दौर में प्रेमी युगल कुछ महीनों या साल के साथ के बाद एक दूसरे से ब्रेकअप कर सुकून की सांस लेते है । यहाँ तक की विवाह के उपरांत भी जो पति -पत्नि का प्रेम तीव्र अग्नि की तरह प्रज्वलित होता है धीरे धीरे उसके उष्मा में कमी आने लगती है । जिससे बात कई बार तलाक तक पहुॅच जाती है । आज के समाज में बढते तलाक के हिसाब से अगर जाॅर्ज वर्नाड शाॅ के प्रेम के परिभाषा से मूल्यांकन करे तो यह परिभाषा सटीक बैठती है । लेकिन आज भी भारतीय समाज में इसका प्रतिशत काफी कम है इसलिए सिर्फ इस दर्शन से प्रेम को परिभाषित नहीं कर सकते है ।
आचार्य रजनीश ( ओशो ) ने प्रेम को बंधन और मुक्ति से इतर सम्पूर्ण समर्पण माना है । प्रेम का विश्लेषण करते हुए वो कहते है मूल रूप से प्रेम का मतलब है कोई आपके लिए खुद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है । यह दुखदायी भी हो सकता है क्योंकि इससे प्रेम करने वाले के अस्तित्व का खतरा है । आप जैसे ही किसी को कहते है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ आप खुद को हार जाते है और अपनी पूरी आजादी खो देते है । वो इतने पर नहीं रूकते वो कहते है यह एक मीठा जहर है और खुद को मिटा देने वाली स्थति है क्योंकि आप अगर खुद को नहीं मिटाते तो आप प्रेम को कभी जान भी नहीं पाएंगे । आपके अंदर का कुछ हिस्सा मिटाना होगा जहाँ जिससे आप प्रेम करते है अपनी जगह बना सके । ओशो का दर्शन प्रथम दृष्टया प्रेम हेतु नकारात्मक प्रतीत होता है लेकिन अगर अंतरमन से बारीकी से समझे तो ओशो ने कहीं न कहीं सम्पूर्ण समर्पण की बात की है । और शायद ऐसा ही दर्शन हमे विभिन्न पौराणिक धर्म ग्रंथो में ईश्वरीय प्रेम के मार्ग के रूप में बतलाया गया है ।
लेकिन जहाँ एक ओर सोचनीय प्रश्न यह है कि इन सभी दर्शन और पौराणिक धर्म ग्रंथों में प्रेम करने तथा उसके उपरांत विवाह के बंधन में बंध जाने को उचित बतलाया है वहीं आज भी हमारा समाज खुले तौर पर इसकी इजाजत नहीं देता है । मैं मानता हूँ की पहले की तुलना में पीछले कुछ दशकों से धीरे धीरे समाज इसे स्वीकार करने की ओर बढ रहा है लेकिन फिर भी प्रश्न वहीं का वहीं बना है कि आखिर प्रेम का विरोध क्यों ? जबकि हम प्रेम को हृदय की बेहद पाक साफ अभिव्यक्ति मानते है ।
कुछ हद तक समाज की जातिगत और धार्मिक संरचना इसके लिए जिम्मेदार है जिसके भ्रमजाल में पड़ समाज हमें प्रेम करने की इजाजत नहीं देता लेकिन कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार आज के युवा भी है । हमे प्रेम , आकर्षक और यौन उत्कंठा को अलग अलग समझने की जरूरत है । प्रेम जहाँ जीत हार , नफा नुकसान से इतर कहीं सम्पूर्ण समर्पण की मांग करता है । प्रेम शाश्वत है ,अमर है जो मरने के बाद भी नहीं मरता किंतु आकर्षण महज एक दूसरे के प्रति खिंचाव है जो किसी खास गुण , व्यक्तिव या चेहरे की सुंदरता को देख कर पनपती है । विपरित लिंग के प्रति आकर्षण तो बेहद समान्य प्रक्रिया है । लेकिन प्रेम से इतर आकर्षण की उम्र होती है । हम जिससे आकर्षित होते है अचानक उसे पाने को लालायित तो हो जाते है लेकिन उसे पा लेने के बाद धीरे धीरे यह आकर्षण कम होने लगता है । लेकिन सबसे खतरनाक है यौन उत्कंठा ,आज समाज में कई ऐसी घटना नित्य दिन हम अखबारों में पढते है तथा सुनते है जब खास कर युवा लड़कियाँ किसी के आकर्षण में भरोसा कर पड़ तो जाती है लेकिन इस आकर्षक का अंत या तो अपनी अस्मत लुटा कर करती है या विवाह के वादे के साथ सहमति से संबंध बनाए जाते है लेकिन बाद में धोखे से इसका दुखद अंत होता है। फिर ऐसी लड़कियों को हमारा समाज अच्छी नजर से नहीं देखता है । यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है कि हमारा समाज प्रेम को कहीं न कहीं प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेता है जिसका खामियाजा उन प्रेमी युगल को भुगतना पड़ता है जो सचमुच प्रेम को समर्पण की तरह जीते है।
अभी वैलेंटाइन हफ्ता चल रहा है , मैं वैलेंटाइन हफ्ते या डे की जरूरत पर बात नहीं करूँगा क्योंकि इसे प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में आजकल मनाया जा रहा है और जितना प्रेम आवश्यक है उसकी अभिव्यक्ति की भी उतनी ही जरूरत है । लेकिन उसके लिए कोई खास दिन ही तय हो इसे मैं जरूरी नहीं मानता लेकिन अगर यह प्रेम उत्सव की तरह ही मनाया जा रहा है तो इसका विरोध भी सर्वथा अनुचित ही है ।
लेकिन प्रेम की अभिव्यक्ति का बाजारीकरण आज चिंतनीय प्रश्न है । वैलेंटाइन हफ्ते के शुरूआत के एक महीने पहले से बाजार में महंगे उपहार के तौर पर बहुत सारे उत्पाद मौजूद है और आज के युवा इसे अपने प्रेम का मापदंड मान रहे है । अर्थात जो अपनी प्रेमिका के लिए जितने महंगे उपहार लेकर देगा उसका प्रेम उतना ही सच्चा और ज्यादा होगा । जिसका गलत असर वैसे युवाओं पर हो रहा है जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं है । ऐसी स्थिति में आज के युवाओं को भी बाजार के इस भ्रम मे न पड़कर प्रेम को अंतःकरण से जीने की जरूरत है। शायद इसी संदर्भ में कबीर की अमृत वाणी आज भी प्रासंगिक लगती है ।
प्रेम न बाड़ी उपजै , प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रूचै , सीस देई ले जाए ।।

अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली ”

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अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

नाम :- अमित कुमार अम्बष्ट “आमिली” योग्यता – बी.एस. सी. (ऑनर्स) , एम . बी. ए. (सेल्स एंड मार्केटिंग) जन्म स्थान – हाजीपुर ( वैशाली ) , बिहार सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन विभिन्न समाचार पत्र और पत्रिकाओं में निरंतर आलेख और कविताएँ प्रकाशित पत्रिका :- समाज कल्याण ( महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की मासिक पत्रिका), अट्टहास, वणिक टाईम्स, प्रणाम पर्यटन, सरस्वती सुमन, सिटीजन एक्सप्रेस, ककसाड पत्रिका , साहित्य कलश , मरूतृण साहित्यिक पत्रिका , मुक्तांकुर साहित्यिक पत्रिका, राष्ट्र किंकर पत्रिका, लोकतंत्र की बुनियाद , समर सलील , संज्ञान साहित्यिक पत्रिका,जय विजय मासिक बेव पत्रिका इत्यादि समाचार पत्र: - प्रभात खबर, आज , दैनिक जागरण, दैनिक सवेरा ( जलंधर), अजित समाचार ( जलंधर ) यशोभूमि ( मुम्बई) ,उत्तम हिंदु ( दिल्ली) , सलाम दुनिया ( कोलकाता ) , सन्मार्ग ( कोलकाता ) , समज्ञा ( कोलकाता ) , जनपथ समाचार ( सिल्लीगुडी), उत्तरांचलदीप ( देहरादून) वर्तमान अंकुर ( नोएडा) , ट्रू टाइम्स दैनिक ( दिल्ली ) ,राष्ट्र किंकर साप्ताहिक ( दिल्ली ) , हमारा पूर्वांचल साप्ताहिक ( दिल्ली) , शिखर विजय साप्ताहिक , ( सीकर , राजस्थान ), अदभुत इंडिया ( दिल्ली ), हमारा मेट्रो ( दिल्ली ), सौरभ दर्शन पाक्षिक ( भीलवाड़ा, राजस्थान) , लोक जंग दैनिक ( भोपाल ) , नव प्रदेश ( भोपाल ) , पब्लिक ईमोशन ( ) अनुगामिनी ( हाजीपुर, बिहार ), लिक्ष्वी की धरती ( हाजीपुर, बिहार ), नियुक्ति साप्ताहिक ( रांची / वैशाली , बिहार) इत्यादि प्रकाशित कृति :- 1 . खुशियों का ठोंगा ( काव्य संग्रह ) उदंतमरुतृण प्रकाशन , कोलकाता साझा काव्य संग्रह ............................... 1. शब्द गंगा (साझा ), के.बी.एस प्रकाशन , दिल्ली 2. 100 कदम (साझा ) , हिन्द युग्म , दिल्ली 3. काव्यांकुर 4 ( साझा ) शब्दांकुर प्रकाशन, दिल्ली 4. भाव क्षितिज ( साझा ) वातायन प्रकाशन, पटना 5.सहोदरी सोपान 3 ( साझा) , भाषा सहोदरी संस्था , दिल्ली 6 रजनीगंधा ( पता :- PACIFIC PARADISE FLAT NO - 3 A 219 BANIPARA BORAL KOLKATA 700154 MOB - 9831199413