कविता

पुकार

एक पुकार

मेरे गर्भगृह में
घर्षण होता रहता है
निरंतर बिना रुके
बड़ी बड़ी चट्टानें
टकराती है
कभी अंदर ही अंदर
होती है प्रज्वलित आग
जो जला देती है मुझको
पर ये नियति है मेरी
मथि जा रही हूँ
वर्षो से
देती चली आ रही हूँ
निरंतर कुछ नया हमेशा से
क्या चाहती हूँ
मेरे उन बच्चों से
क्या वे जानते भी है
मेरे अंदर के घर्षण को
क्या वोह समझते होंगे
नहीं कोई शिकायत है
मुझको उन सब से
पर पुकार क्या मेरी
सुनाई देती होगी उनको भी
मेरे भीतर भी हैं
भावनाएं
ममत्व को निभाती चली आ रही हूँ
पर क्या मेरे बच्चे मुझे
अपनी जननी मानते भी है
बताओ कैसे लगाऊँ पुकार
किसको लगाऊँ पुकार ?

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377