हास्य व्यंग्य

शराफ़त

            शराफत से ही कोई शरीफ बनता है। शराफ़त अकसर चादर या फिर चोंगे की शक्ल में होता है। जब तब आदमी इसे ओढ़ या पहनकर शरीफ बन जाता है। मतलब किसी आदमी के लिए शराफ़त एक कामन फैक्टर की तरह भी होता है, जिसे ओढ़ा या दसाया जा सकता है और फिर हर कोई शरीफ हो सकता है। शायद इसीलिए, शराफ़त बड़ी नाचीज़ सी चीज भी मानी जाती है और शरीफ को देखकर लोग अकसर नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं। चलिए यहाँ तक तो गनीमत है लेकिन शरीफ लोगों पर शराफ़त आफत भी ढाती है, लोग अकसर कह बैठते हैं कि “शरीफ बेचारे अपनी शराफत में ही मारे जाते हैं” और शरीफ अपनी शराफ़त के चक्कर में बाईपास कर दिए जाते हैं। बहुत पहले अपने अध्ययन-काल में शरीफ़ों की ऐसी ही दुर्दशा का आभास मैंने कुछ इस तरह से किया था–

क्या कहूँ, यहाँ
वह हो उंकड़ूँ, बन
बैठा, कोने का एक
पीकदान!

गर्वित वे, थूंक,
चिरत्रिषित, विजिगीषु
आगे बढ़ जाते।

खैर, यह कविता टाइप की अभिव्यक्ति थी, जिसे मैंने भावुकता में आकर कही थी।

पहले शरीफ लोग आसानी से पहचान में आने वाले जीव हुआ करते थे, इसीलिए “फलां शरीफ किस्म का है” इस पर मतैक्यता हुआ करती थी। लेकिन आज का सारा झगड़ा तू शरीफ या मैं शरीफ से होते हुए शराफ़त पर आ पहुँचा है। मल्लब आज शराफ़त पर ही कांसेप्ट क्लियर नहीं हो रहा है और फिर इसकी समझाइश में, शराफ़त गई तेल लेने के अंदाज में लोग अपने-अपने तईं शरीफ बने फिर रहे हैं।

वैसे, पहले अपने देश की जनता आजादी के समय के आदर्शवादी मनोविज्ञान से पीड़ित थी, बेचारी यह जनता भावुकता में पड़कर किसी को भी शरीफ़ घोषित कर देती थी और शरीफ़ लोग अपनी शराफ़त का भरपूर मजा लूटते थे। पहले के शरीफ़ों की शराफ़त, छायावादी कविता में रहस्यवाद जैसी होती थी जो शरीफ़ों को आध्यात्मिकता की भावभूमि पर ले जाकर स्थापित कर देती और शराफ़त का सम्मोहन लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। फिर भी उस समय शराफ़त का मजा कुछ लोग ही उठा पाते थे। इसके बाद प्रगतिवाद-प्रयोगवाद से होते हुए नई कविता और अ-कविता का जमाना आया। अब भावनाएं जमीन तलाश रही थी, जमीन की बात लोगों को समझ में आयी और लोग कवि बनने लगे थे। मतलब अब चीजों को समझना और समझाना आसान हुआ था, फिर तो लोगों को शराफ़त भी समझ में आयी और लोग शरीफ़ भी बनने लगे। यहाँ आकर शराफ़त जमीन पर उतर आयी थी। जमीन पर उतरी शराफ़त में तमाम कर्म-पुद्गल आकर जुड़ते रहे और यहीं से शराफ़त, चोला धारण कर शरीरी हो चुका था। अब शराफ़त की बजाय शरीफ दिखाई देने लगे थे। इसी कारण आज के युग में शरीफ़ों का ही बोलबाला है। चहुँओर शरीफ़ लोग एक दूसरे पर पिले हुए अपने-अपने शराफ़त के पैमाने को जनता की ओर लकलकाते हुए जैसे कह रहे हों, “यह रही हमारी शराफ़त..हम अपनी शराफ़त से आपका जीवन सुधार रहे हैं।”

खैर, जनता बेचारी तो जनता ही है जो जानती तो सब कुछ है लेकिन कर कुछ नहीं पाती, उसे शराफ़त से क्या लेना-देना..! जनता कभी संभ्रांत तो रही नहीं कि उसे शरीफ माना जाए और अगर आप जनता से पूँछने जाएँ कि, “भइया शराफ़त क्या है? तो तय मानिए यह जनता आपको घूरते हुए कहेगी,” साहेब यह जो शराफ़त है न, वह बड़े लोगों के चोंचले हैं..।” मतलब कुल मिलाकर बड़े लोगों के बडे़ होने के पीछे उनके “शराफ़त” का ही हाथ होता है। अकसर ये शरीफ लोग अपने सिवा सबको शराफ़त का पाठ पढ़ाते हुए देखे जाते हैं। बेचारे गरीब को शराफ़त का ऐसा पाठ पढ़ाया जाता है कि वह मुँह खोलने लायक ही नहीं रहता। वह मुँह खोले तो उठाईगीर कहा जाएगा। अब कौन मुँह खोले..! शराफ़त जो चली जायेगी..!! खैर…

बचपन की बात है, गांव में एक बार कुछ बाहरी लोग आए थे, पूँछने लगे थे कि इस गांव में इज्जतदार लोग कौन हैं, तो किसी ने बताया था कि फला टाइप के संभ्रांत लोग हैं जो इज्जतदार और शरीफ़ भी हैं। अब जाहिर सी बात है जो इज्जतदार हैं वह शरीफ़ होगा ही। इस प्रकार तब मैंने अपने बचपन में जाना था कि शरीफ़ लोग इज्जतदार भी होते हैं। वैसे इज्जतदार बनने में पिसान लगता है सबके बस की बात नहीं है इज्जतदार बनना..! इस पिसान की जुगाड़ में कुछ-कुछ मुखियागीरी टाइप का करना पड़ता है। यह बात हमने तब जानी जब हम शरीफ़ बनकर कुछ काबिल बन चुके थे।

एक बार हम अपने इसी काबिलपने के साथ ऐसे ही एक गाँव में गरीब छाँटने पहुँचे। एक मरियल सा आदमी जो मैला-कुचैला कपड़ा पहने हुए था, मेरे पास आकर मेरे गरीब-छंटाई पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए जार-जार अपनी बात कहने लगा। फिर क्या था..! वहीं पर मौजूद संभ्रांत व्यक्तियों में से शरीफ टाइप के दो लोग उठे और उसका चिचुरा पकड़ कर टांगे हुए से उसे सभास्थल से बाहर लेकर चलते बने थे। अन्त में कार्यक्रम की समाप्ति पर जब वह फिर मिला तो रुआंसा हो कहने लगा था, “साहब हमै नहीं बोलने दिया जा रहा..आप ठीक से जाँच करिहौ..” उसकी बात पर वहाँ मौजूद शरीफ़ लोग उसपर हँसते हुए बोले थे, “सासुरा यह ऊठाईगीर है, अपनी ऊठाईगीरी से बाज नहीं आता और ऐसेई बोलता है”। मैं समझ गया था गाँव के संभ्रांत और इज्जतदार लोग शरीफ़ होने के लिए ऐसा ही करते हैं। कुल मिलाकर ये लोग शराफ़त पर कब्जा किए हुए लोग थे।

वाकई! आप माने या ना माने मैं समझ गया था कि शराफ़त शरीफ लोगों का स्टंट होता है। शरीफ़ आदमी की शराफ़त संभ्रांत लोगों की बपौती होती है और जो अक्सर खानदानी हुआ करते हैं। खानदानी लोगों की शराफ़त चल निकलती है, अन्यथा लोग शराफ़त पर अपना कांसेप्ट ही क्लियर करते रह जाते हैं। शायद यही कारण है कि हमारे देश में खानदानी लोगों का बड़ा महत्व होता है। शराफ़त को लेकर इनके सामने दूसरे की दाल गल ही नहीं पाती।

यहाँ एक औार बात की चर्चा करना समीचीन होगा अगर आपको किसी की शराफ़त समझनी है तो पहने चश्मे को भले ही मत उतारें पर इसे नाक पर थोड़ा नीचे खिसकाकर चश्में के ऊपर से देखना शुरू करें, तब किसी शरीफ की शराफ़त समझ में आयेगी। इस बात की शिक्षा मैंने अपने एक गुरू जी से पायी थी। अकसर वे पढ़ाते-पढ़ाते अचानक रुक कर चश्में को नाक पर खिसकाकर हम बच्चों को ध्यान से देखने लगते और फिर धीरे से किसी बच्चे को बुलाकर उसका कान उमेठ देते थे और गुरु जी के साथ ही वह बच्चा भी अपनी शराफ़त समझ जाता।

आजकल मैं शराफ़त को लेकर बहुत चिन्तित हो जाता हूँ। उस दिन किसी ने कह दिया था, “आप तो बड़े शरीफ आदमी हो..” बस पूंछिए मत! तब मैं अपनी शराफत पर घंटों विचारमग्न हो सोचता रहा था। अपनी इस शराफत पर रोऊं या हंसूू मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था.. पता नहीं उन्होंने मुझे शरीफ क्यों कह दिया था..! असल में शरीफ़ आदमी के बारे में मैं अकसर लोगों को कहते सुनता हूँ, “जाने दो, वह बेचारा शरीफ आदमी है।” हाँ, यह जो शरीफ आदमी होता है न वह नाकाबिलेगौर शख्स जैसा ही होता है। मेरे एक मित्र के अनुसार “शरीफ आदमी तो मंदिर में टंगे घंटे की तरह होता है…बस, सत्संग के वक्त ही इनकी जरूरत पड़ती है! मंदिर गये घंटे को ठोका.. टन..की आवाज हुई और चलते बने…!” मित्र ने यह सब समझाते हुए यह भी कहा, “आप ठहरे शरीफ आदमी” आप नहीं समझ पायेंगे। मित्र की बात से मानो मुझपर घड़ों पानी पड़ गया था। मतलब उन्होंने मुझे मंदिर का घंटा घोषित तो किया ही नासमझ भी बता दिया था और अब मैं अपने को एक ठहरा हुआ शख्स भी मानने लगा था। उन मित्र के अनुसार शराफ़त जिसमें होती है वह ठहरा हुआ आदमी होता है। या एक ठहरे हुए शख्स में ही शराफत आती है।

खैर.. मित्र की बात सुनकर मैं शराफ़त से आजिज़ आ चुका था। मैं, मंदिर का घंटा या फिर शरीफ़ बनकर नासमझ नहीं बनना चाहता था। मैं चाहता हूँ, कोई मुझे शरीफ घोषित न करे। मुझे मेरे हिस्से की शराफ़त मिल जाये उसी से मैं अपना काम चला लुंगा…

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.