संस्मरण

विरहिन की गली मत जाना रे भौंरा

जाफरी साहब…! हाँ….जाफरी साहब..यही नाम था उनका। बचपन की कुछ यादों के बीच जाफरी साहब भी स्मृतियों में अकसर आते रहते हैं। व्यक्तित्व आकर्षक…! गोरा-चिट्टा..लम्बा कद…लम्बी सफ़ेद दाढ़ी…आज भी याद है। वही जाफरी साहब कभी-कभी गोल सफ़ेद टोपी लगा कर आते, तो कभी बिना टोपी के। बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय थे जाफरी साहब..! जब भी आते हम बच्चे उन्हें देखते ही “जाफरी साहब-जाफरी साहब” कहते उनके पास दौड़ पड़ते थे और जाफरी साहब हम बच्चों के हाथों में पांच या दस पैसे का एक-एक सिक्का रखते चले जाते थे। बाद में उन पैसों से हम बच्चे ‘मलाई वाले’ से मलाई खरीद लेते थे। यह ‘मलाई-वाला’ और कोई नहीं बल्कि साईकिल के पीछे कैरियर पर लकड़ी के डब्बे में गाँव-गाँव आईसक्रीम बेचने वाला हुआ करता था। जैसे ही वह ‘मलाई वाला’ दिखाई पड़ता हम सारे बच्चे उसे घेर कर खड़े हो जाते और जाफरी साहब के दिए पैसे से ‘मलाई’ खरीद लिया करते थे। ऐसा भी होता कि कभी-कभी जाफरी साहब स्वयं ‘मलाई वाले’ को बुला लेते और बच्चों को मलाई दिलाते। अकसर हमारे बीच उनका आगमन मार्च महीने से लेकर जुलाई माह तक नियमित अंतराल पर हुआ करता था और बच्चे उनके आने का बेसब्री से इंतजार किया करते थे।

आज भी याद है, जब मैं अन्य बच्चों की तरह हुडदंग मचाते जाफरी साहब की ओर दौड़ता तो मेरे दादा मुझे घूरा कर देखा करते थे। शायद उन्हें मेरा अन्य बच्चों की तरह जाफरी साहब से पैसे लेना पसंद नहीं था। खैर, दादा जी की भावनाओं को मैं धीरे-धीरे समझने लगा था। जाफरी साहब दादा जी के साथ बैठ घंटों बतियाते रहते थे। जाफरी साहब के साथ हम बच्चों का यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता रहा था।

शायद यह वही समय था जब हम किशोर-वय में प्रवेश करने वाले थे। मार्च का महीना था, तब हमारे घर पर गाँव वाले जुटते और रातभर जमकर ‘फगुआ-गीत” गाया जाता। हम बच्चे भी रात में जाग कर फाग गीतों के साथ ताल मिलाते ढोल की थापों का मजा लिया करते। कुछ गीत बच्चों के बीच में बेहद लोकप्रिय हो जाते थे और फिर दिन में बच्चे भी मंडली बनाकर ढोल-झंझीरे के साथ बड़ों का नकल किया करते थे, ऐसा ही एक फाग-गीत “विरहिन की गली मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना” हमारे बच्चों की मंडली में भी बेहद लोकप्रिय था।

स्मृतियों में थोड़ी धुंधली सी यादें हैं, ऐसे ही एक होली के महीने के आसपास कोई बड़ा चुनाव भी होने वाला था। उस चुनाव में जाफरी साहब भी उम्मीदवार थे। जाफरी साहब बच्चों के बीच लोकप्रिय तो थे ही, इस लोकप्रियता का फायदा उठाते हुए बच्चों को भी उनके चुनाव-प्रचार की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। उनके चुनाव प्रचार के लिए हमें भी चुना गया था। जाफरी साहब के चुनाव प्रचार के लिए बच्चे बेहद उत्साहित रहते थे। उनके चुनाव-प्रचार के लिए मिठाईलाल के रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाया गया था। मिठाईलाल के उस रिक्शे पर बैठ कर ही हम बच्चे चुनाव प्रचार किया करते थे। वैसे, मिठाईलाल से भी बच्चों की एक खास तरह की दोस्ती थी। असल में जब कोई मलाईवाला सड़क से होकर निकल रहा होता तो मिठाईलाल अपने रिक्शे को दौड़ाकर उस मलाईवाले को बच्चों के बीच बुला लाते थे। तो, जाफरी साहब के चुनाव-प्रचार के लिए बच्चों के बीच से दो बच्चे चुन कर बारी-बारी से मिठाईलाल के रिक्शे के साथ आसपास के गांवों में प्रचार के लिए भेजा जाता था।

उस दिन जाफरी साहब के चुनाव प्रचार की हमारी बारी थी। इसके लिए हमारे साथ एक और हम-उम्र बच्चे को चुना गया था। हम दोनों बच्चे जाफरी साहब के चुनाव प्रचार के लिए बहुत खुश थे। हम दोनों बच्चों को कुछ हिदायतों के साथ चुनाव-प्रचार वाले रिक्शे पर बैठा दिया गया था। प्रचार करते-करते हमारा रिक्शा दूसरे गाँव की ओर बढ़ चला था। “जाफरी साहब को वोट दें…’ ‘उनके चुनाव चिन्ह …..पर ठप्पा लगाएं…’ इसके बाद हम दोनों गाते ‘आवा सखी वोट दई आई मुहर … पर लगाई…’।

इन्हीं जुमलों-बातों गीतों को दुहराते-दुहराते हम कई बस्तियों को पार कर गए थे, अब हम प्रचार के लिए सिखाए गए जुमलों के अंत में अपना एक नया स्वर जोड़ने लगे थे “अपने जाफरी साहब के चुनाव निशान…पर ठप्पा लगाएं…’’ ठीक इसके बाद हम लाउडस्पीकर का मजा लेते हुए अपने सुरीले अंदाज में अपना लोकप्रिय फाग-गीत गाते ‘’बिरहिन की गली मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना’’ और इधर हमारे सुरीले स्वर में फाग-गीत को सुनते हुए मिठाईलाल भी मस्ती के अंदाज में अपने सिर को गोल-गोल अंदाज में घुमाते हमारा उत्साहवर्धन करते जाते। धीरे-धीरे हम चुनाव प्रचार की अपेक्षा अपने फाग-गीत “विरहिन की गली मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना” की आवृत्ति बढ़ाते जा रहे थे। मतलब अब चुनाव प्रचार की अपेक्षा हमारा फाग-गीत ही ज्यादा सुनाई देने लगा था।

जाफरी साहब के चुनाव-प्रचार का कार्य पूरा कर हम घर लौट आये थे। बड़े खुश थे! कि हमने बहुत अच्छा प्रचार किया..!! रिक्शे से उतरते ही हम दोनों दौड़ कर परिवार के बडे़ बुजुर्गों के पास पहुँचे थे। जैसे वे सब हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उन लोगों के पास ही जाफरी साहब भी खड़े थे। वे सभी धीर-गंभीर मुद्रा बनाये हमें ध्यान से घूरते जा रहे थे। हमने सोचा, “शायद हमारे द्वारा किये जा रहे चुनाव-प्रचार की आवाज यहाँ तक नहीं पहुंची है, नहीं तो इतने बढ़िया प्रचार के लिए हमें शाबाशी अवश्य मिलती” यही सोचते हुए मैं उन सभी से पूंछ बैठा था,

“हमार दूनौ जने क अवाज सुनायी पड़त रहा कि नाहीं…”

“अरे सरऊ हरे…खूब सुनाई पड़त रहा…जाफरी साहब बेचारे क वोट मिलि चुका… बिरहिन की गली मत जाना रे भौंरा..!” दादा जी की डाट से परिपूर्ण तब यही आवाज हमें सुनाई पड़ी थी। हम सन्नाटे में आ चुके थे।

जाफरी साहब किसी पार्टी से चुनाव लड़ रहे थे या निर्दलीय थे, यह तो याद नहीं है, लेकिन उन्हें वोट देने उनकी गली कोई नहीं गया था। पता नहीं यह हमारे प्रचार का असर था या कुछ और, उस चुनाव के बाद जाफरी साहब बेचारे फिर कभी नहीं दिखाई नहीं दिए थे।

वैसे, जाफरी साहब बेचारे सज्जन इंसान ही थे। लेकिन आज एहसास होता है कि चुनाव के मौसम में ही पता चलता है कि एक राजनीतिक व्यक्ति सत्ता के बिना विरही ही होता है; हाँ राजनीतिक विरही। और इस बिरही की गली जाना खतरे से खाली नहीं होता, क्योंकि विरह में व्यक्ति उन्मादी हो जाता है। आज के राजनीतिक इस विरह उन्माद से पीड़ित प्रलाप करते घूम रहे हैं।

हमने अनजाने ही सही, सही प्रचार किया था।
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*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.