कविता

गाँधी जी के बन्दर

एक दिन मैं जा पहुंचा
गाँधी की कुटिया के अन्दर
चरखा ‘ चश्मा लाठी के संग
बैठे तीन थे बन्दर
एक बन्दर का हाथ मुंह पर
दूजा कान दबाये
तिजा हाथों से आँखें कर
बंद हमें समझाये
ना देखें हम बुरा किसी का
ना ही सुनते बुराई
बुरा कीसी को ना बोलें हम
सब हैं मेरे भाई
समझ गया बन्दर की बातें
सबको बता रहा हूँ
छोड़ बुराई सच्चाई की
अलख मैं जगा रहा हूँ

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।