कविता

एक कविता ……वेदी

प्रज्वलित कर मन की वेदी
कर्मों की ले समिधा बना
कुछ धृत अश्रु चढ़ा तभी
एक हवन कुंड खुद में बना।।

पत्त्थर पत्त्थर भगवान है
इंसान अब पत्थर बना
राम का नाम जपता
पाप से है मन सना।।

खुद को ही छलता रहा
तन मन से है भोगी बना
खुद को नहीं पहचानता
बातें रहा कितनी बना।।

छल कपट और पाप से
बहुमूल्य जीवन दिया गवा
पूछता फिरता गली गली
भगवान बोलो है कहाँ ??

जल जाने दो प्रमाद सब
उन्माद !प्रण ऐसा बना
खुद की बेदी पे खुदी को
आज तू समिधा बना ।।

महक जायेगा तन मन
मन को फिर मंदिर बना
हृदय दीपक जल उठा
अंतर्मन ले इतना बना ।।

— मेरी कविता मेरा मन (अंशु)