गीत/नवगीत

“गाँवों का निश्छल जीवन”

जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।

सूरज उगने से पहले, हम लोग रोज उठ जाते थे,
दिनचर्या पूरी करके हम, खेत जोतने जाते थे,
हरे चने और मूँगफली के, होले मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।

मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही, दादी खेतों में लाती थी,
लाड़-प्यार के साथ हमें, वह प्रातराश करवाती थी,
मक्की की रोटी, सरसों का साग याद आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।

आँगन में था पेड़ नीम का, शीतल छाया देता था,
हाँडी में का कढ़ा-दूध, ताकत तन में भर देता था,
खो-खो और कबड्डी-कुश्ती, अब तक मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।

तख्ती-बुधका और कलम, बस्ते काँधे पे सजते थे,
मन्दिर में ढोलक-बाजा, खड़ताल-मँजीरे बजते थे,
हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम स्वाद भूल नही पाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।

युग बदला, पहनावा बदला, बदल गये सब चाल-चलन,
बोली बदली, भाषा बदली, बदल गये अब घर आंगन,
दिन चढ़ने पर नींद खुली, जल्दी दफ्तर को जाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है