गीतिका/ग़ज़ल

मेरा दोस्त

मय्यत सजी थी उसकी सब लोग रो रहे थे
अश्कों से अपनी उसके कफ़न भीगो रहे थे

वह दोस्त था मेरा हमवतन हमनिवाला
दिल रो रहा था मेरा लब मुस्काये जा रहे थे

मुस्कान देख मेरी एक शख्स ने बताया
बारात ये नहीं है जनाजा मुझे समझाया

माकूल है फरमाना मैं भी नहीं हूँ गाफिल
दिल रो रहा है मेरा मुश्किल बड़ा मुस्काना

मरहूम ने कहा था इक अश्क न बहाना
मय्यत पे मेरी आके हंसते हुए ही जाना

जब तक मैं हूँ हयात इस सीने से लग के रो ले
मैं ना रहूँगा कैसे इन अश्कों को सहेजूँगा

रोयेगा तू अकेले खामोश मैं रहूँगा
मरकर भी तुझको रोते न देख मैं सकूँगा

ये तुझसे है गुजारिश मुझको ना तुम भुलाना
हंसते हुए ही मेरी मय्यत में तुम आ जाना

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।