लघुकथा

सबक

रश्मि और सुधीर अपने दस वर्षीय पुत्र दक्ष के साथ तैयार होकर घर के मुख्य दरवाजे पर पहुंचे । बरामदे में बैठी सुधा को देखकर रश्मि उससे मुखातिब हुयी ” माँ जी ! हम लोगों को आने में शायद देर हो जाये । आप अपने लिए कुछ बना कर खा लीजियेगा । ”
सुधा ने बेबसी भरे स्वर में कहा ” लेकिन बहू ! ये गैस का चूल्हा तो मैं जलाना ही नहीं जानती । और वैसे भी मुझे इस चूल्हे से बड़ा डर लगता है । तुम आ जाओ फिर कुछ पका देना मेरे लिए । ”
रश्मि बिफरते हुए बोली ” माँ जी ! क्या आप चाहती हैं कि देर रात गए जब मैं आऊं आपके लिए एक बार फिर अपने आपको चूल्हे में झोंक दूँ ……..”
तभी उसकी बात बीच में ही काटते हुए सुधीर बोल पड़ा ” माँ ! कहाँ तुम भी अच्छा खासा मूड बिगाड़ने बैठ गयी हो । एक काम करो । बगल में ही रघुनाथ जी के मंदिर में आज भंडारा है । तुम वहीँ चली जाना । देवदर्शन भी हो जायेगा और भोजन भी । ”  कहने के साथ ही रश्मि का हाथ थामे सुधीर उसे लगभग घसीटता हुआ बाहर चला गया ।
इस घटना के कई दिनों बाद एक दिन रश्मि दक्ष को स्कूल से मिला हुआ गृहकार्य पूरा करा रही थी । हिंदी निबन्ध की कापी पर उसकी नजरें टिक गयी ।  दक्ष ने एक पन्ने पर निबन्ध लिखा था । शीर्षक था ‘ ,जीवन के सपने ‘  आगे लिखा था ‘ मैं दक्ष सुधीर शर्मा खूब पढ़ना लिखना चाहता हूँ । पढ़ लिख कर अच्छी सी नौकरी करके एक बड़ा सा घर बनाना चाहता हूँ जिसमें मैं अपने मम्मी और पापा के साथ रह सकूँ । लेकिन घर मैं वहीँ बनाऊंगा जहां नजदीक ही कोई बड़ा सा मंदिर हो जहाँ हमेशा पूजा पाठ व भंडारे वगैरह होते रहते हों ताकि मैं जब कभी बच्चों संग बाहर जाऊं तो मम्मी और पापा को भंडारे से खाने को मिल सके । ‘
आगे रश्मि पढ़ नहीं सकी और सोचने लगी ‘ ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।