संस्मरण

नागमणि –एक रहस्य (भाग –५ )

गुरूजी की बात अब मेरे समझ में आ रही थी । ‘  वाकई रात के अँधेरे में हम वहां मंदिर के पास क्या कर रहे हैं कौन जान पायेगा ? और फिर जान भी ले तो क्या ? कोई गलत काम तो कर नहीं रहे हैं । अगर कामयाब हो गए तब तो गुरूजी के बताये अनुसार बहुत बड़ी बात हो जाएगी । तो फिर गुरूजी की बात मान लेने में बुराई ही क्या है ? और दूसरी कोई सुरक्षित जगह भी तो नहीं समझ में आ रही थी । ‘ काफी सोच विचार कर हमने गुरूजी से इसी सोमवार को उक्त विधि करवा देने का निवेदन किया ।
गुरूजी सहर्ष तैयार हो गए  । अपने मित्र से विदा लेकर मैं गुरूजी के साथ अपने घर पहुंचा और उन्हें भोजन वगैरह कराकर उनके रिश्तेदार के यहाँ पहुंचा दिया ।
यह शनिवार दोपहरी की बात थी । एक दिन बाद ही वह दिन आ गया जिसका हमें इंतजार था । दिन भर अपने अपने काम में व्यस्त रहते हुए भी हम लोगों का पूरा ध्यान रात में होनेवाली तांत्रिक क्रिया पर ही टिका हुआ था । दिल के किसी कोने में यह बिलकुल अविश्वसनीय सा लग रहा था । दिल यह मानने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है कि कोई इच्छाधारी नाग बर्तन में रखे उस मणि को आकर फूंक जायेगा । पहले तो मन यही मानने को तैयार नहीं था कि कोई इच्छाधारी नाग होता भी है । लेकिन दुसरे ही पल दिमाग यह मानने को मजबूर कर देता कि यही सोच तो नाग मणि के लिए भी थी लेकिन वह तो सच साबित हो गयी । उसकी कई लोगों ने पुष्टि कर दी है तो गुरूजी की इच्छाधारी नाग को लेकर कही गयी बात का यकिन नहीं करने का कोई कारण ही नहीं बनता । और फिर कौनसा ज्यादा खर्च करना है । ज्यादा या अनापशनाप खर्च होता तो एक बार सोचते भी इस मामूली से खर्च के लिए क्या चिंता करना ? इसी उहापोह में दिन बित गया । दिन में ही अपने मित्र से और गुरूजी से बात कर के सारा कार्यक्रम तय कर लिया था सो मैं अब लगभग निश्चिन्त था । रात घर में सभी परिजनों के सो जाने के बाद तय समय पर मैं भी नियत जगह पर पहुँच गया ।
यह जगह मेरे घर से दो मिनट की पैदल दुरी पर ही था । वहां देखा गुरूजी और उनका चेला मेरे मित्र के साथ मेरा इंतजार कर रहे थे ।
मेरे पहुंचते ही गुरूजी ने अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया । पहले आपको माहौल से परिचित करा दूँ । मेरे घर के करीब से यानी लगभग सौ फुट बाद से ही इस तालाब की सीमा शुरू हो जाती है । इसके एक तरफ घरों की कतारें वहीँ यह तीन तरफ से पक्की सड़क से घिरा हुआ है । इसके पश्चिमी किनारे पर एक बहुत ही पुराना मंदिर है जिसमें शंकर भगवान सहित समस्त देवगण विराजमान हैं । अपने क्षेत्र में  यह मंदिर काफ    मशहूर है । आसपास की बहुत सी संपत्तियों की तरह यह विशाल तालाब भी मंदिर की निजी संपत्ति थी उन दिनों लेकिन अब सरकार ने इसका अधिग्रहण करके इसका सौन्दर्यीकरण कर इसका कायापलट कर दिया है । अब इसके चारों तरफ जॉगिंग ट्रैक के साथ ही बच्चों के खेलने के मैदान के साथ ही खेलने के तमाम साधन भी बनवाए गए हैं । इसी पश्चिमी किनारे पर मंदिर के सामने ही लगभग दस फुट की चौड़ी सड़क के बाद तालाब में उतरने के लिए पक्की सीढियाँ बनी हुयी थी । अप्रैल का महिना होने की वजह से पानी काफी निचे चला गया था । लगभग आठ नौ सीढियाँ उतरने पर एक सीढ़ी जिसपर तालाब का पानी था उसी सीढ़ी पर खड़े होकर गुरूजी ने अपना कर्मकांड शुरू कर दिया । हम लोगों को उन्होंने सख्ती से पानी को किसी भी हालत में न छुने की हिदायत दी । पानी वाली सीढ़ी से दो सीढ़ी उपर ही हम लोग बैठ गए थे । गुरूजी और उनका चेला विधि विधान से पूजा करना शुरू कर दिए । गुरूजी ने हम लोगों से दूध और एक बर्तन के अलावा और कुछ भी लाने से मना किया हुआ था ।
अब वहां कई तरह की पूजा सामग्री देखकर हम लोग हैरत में थे । सने हुए आटे से एक दीपक बनाकर  चेले ने उसमें रुई की बाती डालकर उसे घी से भर दिया । गुरूजी  ने अपने झोले में से एक लोटा निकाल कर उसे चेले को पकड़ा दिया । चेले ने वहां से थोडा हटकर तालाब के पानी से ही लोटे को अच्छी तरह धोकर गुरूजी को पकड़ा दिया । अब गुरूजी तालाब के पानी से भरा लोटा अपने सामने स्थापित कर उसके सामने पानी में ही सीढ़ी पर आसन लगाकर बैठ गए । लोटे में भरे जल के ऊपर पुष्प व रोली अर्पित कर वह मन्त्र पाठ में मग्न हो गए ।
आँखें बंद करके लगभग दस मिनट तक मन्त्र पाठ करने के बाद गुरूजी ने आँखें खोलीं और मुस्कुराते हुए बोले ” ऐसा है वह जो मंदिर के पास वाला नाग जो हमने बताया था यहाँ आने में आनाकानी कर रहा है । वह यहीं नजदीक ही रहनेवाले किसी दुसरे नाग को भेजने को तैयार हो गया है । ”
सुनकर हम लोगों को थोड़ी हैरत हुयी । मैं बोल पड़ा ” ,आनाकानी कर रहा है मतलब आपकी बात नहीं मान रहा है फिर आप उससे काम कैसे करा पाएंगे ? क्या आप उससे जबरदस्ती नहीं कर सकते ? ”
गुरूजी शांत स्वर में बोले ” मेरे पास शक्ति है और मैं सब कर सकता हूँ । उन्हें भी इस बात की जानकारी है तभी तो वो सहयोग कर रहे हैं । अच्छा ! ये बताओ ! यहाँ कोई नजदीक छोटी सी पहाड़ी है ? ”
तभी मेरा मित्र बोल पड़ा ” हाँ ! है तो लेकिन वो भी यहाँ से दो किलोमीटर दुर है । ”
गुरूजी मुस्कुराये ”  तब ठीक है ! मैं यही देख रहा था कहीं वह मंदिर वाला नाग मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहा था । इसका मतलब उसने सही बताया था कि उस पहाड़ी में रहनेवाले नाग को बुला लो । ”
कुछ देर रुक कर उन्होंने आगे कहा ” अब मैं उससे संपर्क स्थापित करने जा रहा हूँ । ऐसे ही खामोश रहना आप लोग और कृपया पानी से दूर रहना । ”
कहकर वह अगले ही पल आँखें बंद कर कुछ मन्त्र बुबुदाने लगे ।
कुछ ही देर में उन्होंने अपनी आँखें खोलते हुए अपने चेले की तरफ कुछ ईशारा किया । उसने बड़ी फुर्ती से पास रखे झोले में से लाल धागे का एक बण्डल निकाल कर गुरूजी के हाथों में दे दिया ।
उस बण्डल में से धागे के तीन छोटे छोटे टुकडे तोड़कर उसे हाथों में लेकर फिर से आँखें बंद कर कुछ मन्त्र पाठ करने लगे । दो या तीन मिनटों में ही उन्होंने आँखें खोलकर अपने चेले को अपने हाथ में पकड़ा लाल धागा दे दिया और हम लोगों से बोले ” बड़ी आनाकानी के बाद वह आ रहा है और मैं कोई खतरा नहीं उठाना चाहता इस लिए तुम तीनों यह धागा अपनी अपनी जेब में संभाल कर रख लो । याद रहे यह धागा ही अब तुम्हारी जिंदगी है । बड़े ध्यान से रखो और जब तक यहाँ रहोगे तुम्हें इसे अपने से अलग नहीं करना है । यह नाग बड़ा शरारती लग रहा है इसका कोई भरोसा नहीं । हमारे आदेश को वह नकार नहीं सकता है इस लिए आ रहा है लेकिन गुस्से में वह कुछ भी कर सकता है सो सावधानी रखने में ही समझदारी है । समझ गए ? ”
हम लोगों ने सावधानी से वह धागा लेकर अपनी जेब में रख लिया ।
अन्दर से हम थोडा डर अवश्य गए थे लेकिन बेफिक्र होने का दिखावा करते हुए गुरूजी की आगे की हरकतों को देखने लगे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।