संस्मरण

नागमणि –एक रहस्य ( भाग –७ )

रात के लगभग दो बजे मैं अपने घर पहुंचा था । घर में किसी को भी इस घटना के बारे में जानकारी ना हो इसलिए मैंने वह पात्र रखने और संभालने का जिम्मा अपने मित्र को ही दे दिया था । जाते जाते उसे सभी हिदायतें फिर से याद कराना नहीं भुला था । समय का चक्र चलता रहा और उसके वशीभूत हम भी अपनी राह चलते रहे । वही दिन और फिर वही दिनचर्या ! सुबह उठना दिन भर भटकना और फिर रजनी के सान्निध्य में निंदिया रानी के आगोश में स्वप्न लोक में विचरण करते हुए भोर तक का रास्ता तय करना ! शायद इसी को जिंदगी कहते हैं । समय अपनी गति से चलता रहा लेकिन हमें ऐसा लग रहा था जैसे समय की गति धीमी हो गयी हो । चालीस दिन का इंतजार अब हम लोगों को अखरने लगा था । गुरूजी द्वारा किये गए चमत्कार को देखने के बाद हमें ऐसा लगने लगा था कि अब वह नागमणि फिर से जिन्दा होकर रोशनी से नहा उठेगी ।
कभी कभी मित्र से मुलाकात हो जाती । मिलते ही उस मणि के लिए अपने त्याग की कहानी सुनाना शुरू कर देते । अपने घर में ही बने एक छोटे से मचान जैसे कोठे को साफ़ करके उसने वह बर्तन वहीँ रख दिया था  । उनके अनुसार वह इस बात का हमेशा ध्यान रखते थे कि कोई उस के नजदीक भी नहीं जा पाए । उसकी पवित्रता की रक्षा के लिए भरसक प्रयत्न करते रहे । इस बिच गुरूजी हमसे विदा लेकर अपने गृहनगर बस्ती जा चुके थे ।
पल मिनटों में ‘ मिनट घंटों में ‘ और घंटे दिनों में तब्दील होते रहे और एक एक दिन गिनते आखिर वह दिन आ ही गया जब दिनों की गिनती चालीस पर आ पहुंची थी ।
सुबह लगभग ग्यारह बजे मैं अपने उस मित्र के घर जा पहुंचा । कुछ देर इधर उधर की बात करने के बाद मेरे मित्र ने  इशारा किया और उनकी पत्नी अपने बच्चों को लेकर बाहर निकल गयी ।
मित्र ने ऊपर कोठे पर रखा बर्तन निचे उतारा और भगवान शिव का स्मरण कर मैंने अपने हाथ से उस पर बंधा लाल कपड़ा हटाया ।
हमें उम्मीद थी कि चालीस दिन तक रखने की वजह से दूध सड़ कर भयंकर बदबू दार हो गया होगा । लेकिन दुर्गन्ध बिलकुल भी नहीं आ रही थी । पात्र में दूध जमा हुआ दिख रहा था । ऐसा लग रहा था जैसे पुरे पात्र में पनीर रखा हुआ हो । अब समस्या थी कि इसमें से मणि को कैसे ढूंढा जाये ?  दूध जैसा तरल होता तो आसानी से मणि को ढूंढा जा सकता था । गुरूजी की बात याद थी । उसके अत्यंत घातक जहर में बदल जाने की बात को सच मानते हुए हम लोग पूरी सावधानी रख रहे थे । दुसरे किसी पात्र का उपयोग उसे भी जहरीला बना देगा और हाथ से छुना भी भयभीत कर रहा था । मैंने उस पर बंधे हुए कपडे को ही जमीन पर बिछा कर उस पात्र को उस पर पलटी कर दिया । पलटी करने के बाद भी वह ठोस हो चुका दूध जब नहीं गिरा तब मैंने बर्तन के निचले हिस्से पर मुट्ठी से ही ठोंकना शुरू किया । थोड़े प्रयास के बाद ही एक झटके से वह जमा हुआ दूध निचे बिछे हुए कपडे पर गिर पड़ा और मेरे हाथ में उलटा पात्र ही रह गया । पात्र को परे रखकर अब हमने दूध में मणि खोजने का प्रयास किया । मुझे आशंका थी कि ठोस पत्थर जैसी मणि पात्र की तलहटी में ही होगी और पात्र के पलटी मारते ही वह सबसे ऊपर ही दिखाई देगी । लेकिन हमारी आशंका गलत साबित हुयी थी । आखिर मणि खोजने के लिए हमें एक चाकू का सहारा लेना पड़ा । चाकू की सहायता से जमे हुए दूध को बिखेरने के बाद आखिर मणि हमें मिल ही गयी । उसे देखते ही हमें एक आघात सा लगा लेकिन हम इसके लिए पहले से ही तैयार थे । तमाम चमत्कारों के बावजूद भी हमें पचास प्रतिशत से अधिक आशंका थी कि शायद मनोवांछित फल न मिल पाए । मणि से रोशनी की कोई किरण नजर न आना ही हमारे मायूस होने का कारण था । लेकिन अभी भी उम्मीद की एक हलकी किरण बाकी थी । मणि के गिर्द लिपटे ठोस दूध की वजह से भी शायद हमें रोशनी नजर न आ रही हो यह मानकर मैंने उसे उसी कपडे से पोंछ दिया लेकिन निराश ही होना पड़ा । मणि में कोई चमक नहीं आई थी ।
हताश व निराश हम थोड़ी देर यूँ ही बैठे रहे लेकिन फिर उस पूरी सामग्री के जहरीले होने का अहसास होते ही हम उसके निपटारे की तैयारी में लग गए ।
एक बार फिर उस मणि को हाथ में लेकर देखना चाहता था सो उसी पात्र में थोडा दूध डालकर उसमें मणि को चाकू से हिला डुला कर उसमें लगे जहर का प्रभाव कम करने की कोशिश की और फिर चाकू की नोंक से ही उसे कपडे पर गिरा कर उसे कपडे से पोंछ दिया ।
मणि को हथेली में लेकर भींचने के बाद इस अहसास ने कि अब नसों में होनेवाला स्पंदन अब कम महसूस हो रहा था मन को और मायूस कर दिया था ।
एक नायाब उपलब्धि मिलते मिलते रह गयी थी । लेकिन फिर भी ऐसी नायाब चीज अभी भी हमारे पास थी और वह नाग मणि ही थी । अब हमारा विश्वास और दृढ हो गया था । वजह थी चालीस दिनों के बाद भी रखे गए कच्चे दूध का ना सडना और ना ही कोई दुर्गन्ध आना । हमारे लिए यह भी एक रहस्य जैसा ही था कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है ?
वह सब सामग्री अपने मित्र के साथ ही लेकर हम लोग उसके घर से बाहर निकले । दो मिनट बाद ही हम आबादी से बाहर सुनसान इलाके में थे । काफी मशक्कत के बाद हम उस बर्तन व चाकू के साथ सारा कुछ जमीन में गाड़ने में सफल हुए ।
घर पर आकर हमने कई बार साबुन से हाथों को रगड़ रगड़ कर धोया और तब कहीं जाकर आश्वस्त हो सके । मणि मैंने मित्र को ही सौंप दिया था । हालाँकि उसके पांच लाख रुपये कोई देने के लिए राजी था लेकिन ऐसी नायाब चीज का दाम लगाकर मैं उसकी कीमत और उसकी गरिमा  कम नहीं करना चाहता था ।
इस घटना के बहुत दिनों बाद तक वह मणि उसी मित्र के पास रही । किसी दूसरी वजह से उस मित्र ने मुझसे बोलना बंद कर दिया और आज तक हमारे बीच बातचीत लगभग बंद है । पैसे का मोह भी शायद मुझे नहीं था और उस नायाब दुर्लभ चीज के दर्शन के साथ ही वह चमत्कारी नजारा मेरी अनमोल थाती बन गयी और मैं इसीसे संतुष्ट हूँ । और शायद इसी लिए मैंने दुबारा उस मित्र से इस बारे में बात नहीं की और न ही उसके लिए कोई विवाद खड़ा किया ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।