कविता

चींटी और हाथी

चींटी एक चढ़ी पर्वत पे,गुस्से से होकर के लाल ।
हाथी आज नही बच पावे,बनके आई मानो काल ।
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कुल मेटू तेरे मैं सारो,कोऊ आज नही बच पाय ।
बहुत सितम झेले है अब तक,आज सभी लूंगी भरपाय ।।
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कुल का नाश किया मेरे का,रौंद पैर के नीचे हाय ।
सुन निर्मम हत्यारे द्रोही,कोई आज बचा नही पाय ।।
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भर हुँकार गर्ज रही चींटी,सुनलो श्रोता ध्यान लगाय ।
हाथी खड़ा पेड़ के नीचे,यह सुनकर धीमे मुस्काय ।।
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हाथी की मुस्कान देख के,चींटी को आया है क्रोध ।
चींटी बोली सुन अज्ञानी,मेरी ताकत का नहि बोध ।।
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देख अकेली तुझको मारूँ,बिना खड्ग बिन कोऊ ढाल ।
तडप तडप के प्रानन त्यागे,ऐसा कर दूं तेरा हाल ।।
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इतना कहकर चींटी लपकी,हाथी ने लटकाई सूँड़ ।
चींटी बन गई आज दामिनी,हाथी का भन्नाया मूँड़ ।।
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धीरे धीरे बढ़ी मारने,हाथी मारे फिर चिंघाड़ ।
थर थर कांपे वह बलशाली,लेने लगा प्रभो की आड़ ।।
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मोय बचाओ गिरधर नागर,दीनबन्धु करुणा अवतार ।
आज उबारो संकट भारी,तुम्हे दीन यह रहा पुकार ।।
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चींटी बोली सुन हत्यारे,कोउ पाप संगाती नाय ।
कर्म करे जैसे धरती पे,वैसा ही फल लेगा पाय ।।
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दुश्मन को छोटा मत आंको,दुश्मन भारी नाहक जान ।
आज इसी गलती के कारण,त्यागेगा तू अपने प्राण ।।
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क्रोध भरी चींटी भी भारी,कहता यह सारा संसार ।
तनिक छुआ नही उसने हाथी,लेकिन फिर भी डाला मार ।।
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