इतिहास

गुरु गोबिन्द सिंह

बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में गुरु गोबिन्द सिहं नें हिन्दू युवाओं को ‘संत-सिपाही’ की पहचान प्रदान करी थी। उन्हें मुस्लिम अत्याचार सहने के बजाय  अत्याचारों के विरुद्ध लडने के लिये भक्ति मार्ग के साथ साथ कर्मयोग का मार्ग भी अपनाने का आदेश दिया था। इसी पर्व से ‘खालसा-पंथ’ की नींव पड़ी थी।

औरंगजेब ने भारत के इस्लामी करण की गतिविधियाँ तीव्र कर दीं थी। औरंगजेब के अत्याचारों का मुख्य लक्ष्य हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मण थे। विक्षिप्त ब्राह्मणों ने गुरु तेग़ बहादुर से संरक्षण की प्रार्थना की। गुरु तेग़ बहादुर अपने स्पुत्र गोविन्द राय को उत्तराधिकारी नियुक्त कर के औरंगजेब से मिलने दिल्ली पहुँचे किन्तु औरंगजेब ने उन्हे उन के शिष्यों समेत बन्दी बना कर उन्हें अमानवी यातनायें दीं और  गुरु तेग़बहादुर का शीश दिल्ली के चाँदनी चौक में कटवा दिया था।

पिता की शहादत का समाचार युवा गुरु गोविन्द राय के पास पहुँचा। उन्हों ने 30 मार्च 1699 को आनन्दपुर साहिब में ऐक सम्मेलन किया और अपने शिष्यों की आत्मा को झंझोड कर धर्म रक्षा के लिये प्ररेरित किया। जन सभा में अपनी तलवार निकाल कर उन्हों ने धर्म-रक्षार्थ बलि देने के लिये ऐक शीश की माँग की। थोडे कौहतूल के पश्चात ऐक वीर उठा जिसे गुरु जी बलि देने के लिये ऐक तम्बू के भीतर ले गये। थोडे समय पश्चात खून से सनी तलवार हाथ में ले कर गुरु जी वापिस आये और संगत से ऐक और सिर बलि के लिये माँगा। उसी प्रकार बलि देने के लिये गुरु जी पाँच युवाओं को ऐक के बाद ऐक तम्बू के भीतर ले गये और हर बार रक्त से सनी हुई नंगी तलवार ले कर वापिस लौटे। संगत में भय, हडकम्प और असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गय़ी और लोग डर के इधर उधर खिसकने लगे। तब अचानक श्वेत वस्त्र पहने पाँचों युवाओं के साथ गुरु जी तम्बू से बाहर निकल आये।

जनसभा में गुरू जी ने पाँचो वीरों को ‘अमृत छका कर’ अपना शिष्य घोषित किया और उन्हे ‘खालसा’ (पवित्र) की उपाधि प्रदान कर के कहा कि प्रतीक स्वरूप पाँचों शिष्य उन के विशेष अग्रज प्रियजन हों गे। तब उन नव खालसों को कहा कि वह अपने गुरु को भी ‘अमृत छका कर’ खालसा समुदाय में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार ‘खालसा-पँथ’ का जन्म हुआ था। आज भी प्रतीक स्वरूप सिखों के धार्मिक जलूसों की अगुवाई ‘पाँच-प्यारे’ ही करते हैं।

व्यवसाय की श्रेणी से उऩ पाँच युवकों में ऐक क्षत्रिय जाति का दुकानदार था, ऐक जाट कृषक, ऐक छिम्बा धोबी, ऐक कुम्हार, तथा ऐक नाई था किन्तु गुरु जी ने व्यवसायिक जाति की सीमाओं को तोड कर उन्हें ‘धार्मिक ऐकता’ के सूत्र में बाँध दिया और आदेश दिया कि वह अपने नाम के साथ ‘सिहँ’ (सिंघ) जोडें। उन्हें किसी का ‘दास’ कहलाने की जरूरत नहीं। गुरु गोविन्द राय ने भी अपना नाम गोबिन्द सिंहँ रख लिया। महिलाओं के योगदान को महत्व देते हुये उन्हों ने आदेश दिया कि सभी स्त्रियाँ अपने नाम के पीछे राजकीय सम्मान का सूचक ‘कौर’ (कुँवर) शब्द लगायें। दीनता और दासता की अवस्था में गिरे पडे हिन्दू समाज को इस प्रकार के मनोबल की अत्यन्त आवशयक्ता थी जो गुरु जी ने अपने मार्ग दर्शन से प्रदान की।

दूरदर्शता और प्रेरणा के प्रतीक गुरु गोबिन्द सिहँ ने अपने नव निर्मित शिष्यों को ऐक विशिष्ट ‘पहचान’ भी प्रदान की ताकि उन का कोई भी खालसा शिष्य जोखिम के सामने कायर बन कर धर्म और शरणागत की रक्षा के कर्तव्य से अपने आप को छिपा ना सके और अपने आप चुनौती स्वीकार करे। अतः खालसा की पहचान के लिये उन्हें पाँच प्रतीक ‘चिन्ह’ धारण करने का आदेश भी दिया था। सभी चिन्ह ‘क’ अक्षर से आरम्भ होते हैं जैसे कि केश, कँघा, कछहरा, कृपाण, और कडा। इन सब का महत्व था। वैरागियों की भान्ति मुण्डे सिरों के बदले अपने शिष्यों को राजसी वीरों की तरह केश रखने का आदेश दिया, स्वच्छता के लिये कँघा, घोडों पर आसानी से सवारी कर के युद्ध करने के लिये कछहरा (ब्रीचिस), कृपाण (तलवार) और अपने साथियों की पहचान करने के लिये दाहिने हाथ में फौलाद का मोटा कडा पहनने का आदेश दिया।

हिन्दू समुदाय को जुझारू वीरता से जीने की प्ररेणा का श्रेय दसवें गुरु गोबिन्द सिहँ को जाता है। केवल भक्ति मार्ग अपना कर पलायनवाद की जगह उन्हें ‘संत-सिपाही’ की छवि में परिवर्तित कर के कर्मयोग का मार्ग अपनाने को लिये प्रोत्साहित किया। अतः उत्तरी भारत में सिख समुदाय धर्म रक्षकों के रूप में उभर कर मुस्लिम जुल्म के सामने चुनौती बन कर खडा हो गया।

सिख शब्द शिष्य से बना है । प्रत्येक गुरु के नाम में राम, कृष्ण (किशन) गोविन्द में से कोई ऐक नाम शामिल है। सिहं लगाने की प्रथा राजपूतों से चली आरही है। गुरू गोबिन्द सिहं ने शिव की आराधना हिम-कुण्ड ( हेमकुन्ट साहब) पर करी थी खालिस बृज भाषा में  वर मांगा था – “देहि शिवा वर मोहि शुभ कर्मण से कब्हूं ना टरूं”। आज कुछ मत भृष्ट राजनेता हिन्दू-सिखों को अलग करने के प्रयास करते हैं जो गुरू गोबिन्द सिहं जैसै परम वीर का अपमान है। गुरू गोबन्द सिहं राम, कृष्ण, और शिवा जी की ही तरह हिन्दू धर्म के लिये परम आदरणीय रक्षक हैं।

चाँद शर्मा

चाँद के. शर्मा

Chand K Sharma left his post graduation in 1963 to join Indian Army and served all over India. He has varied interests in literature, history, and performing arts and still regards himself a learner. He has been sharing his knowledge and experience in varied subjects with others as a free lance writer in English and Hindi. At present he is settled at Delhi and has been a visitor to US.