गीतिका/ग़ज़ल

“गीतिका”

यही परिवार है अपना यही दरबारे दर हमारा है

यहीं हिलती मिलती हैं खुशियाँ यही संसार हमारा है

इसे जन्नत कहो मन्नत कहो या बागवन ही कह लेना

मगर खुदगर्जी का दामन मत कहो निस्बत हमारा है।।

बहके हुए चलते जो कदम कुछ दूर जाकर लौटाते

यहीं वह छाँव है शीतल यही शायद सम्यक सहारा है।।

इसी में गुल भी खिलते है यही गुलफाम है मन मानों

इसी में तैरती नैया यही सतह समन्दर किनारा है।।

यही पर बाढ़ आती है यहीं पर भीगते हैं हम हमदम

यहीं उगती है किरणें ठंड की यही पोषक नजारा है।।

यहीं भौंरे मचलते हैं यहीं कलियाँ खिलती महकती हैं

यही पर झीलों का दिव्य दर्शन यही झरना सितारा है।।

चलाओ देख लो पत्थर लहूँ बदन अपना ही निकलेगा

बहेगा पानी गैर का कैसे जहाँ खुद का फुहारा है।।

इसी को अपना देश कहते हैं यही परदेश है गौतम

यहीं पलकें निमेष भी होगा इसी ने दिल दुलारा है।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ