गीत/नवगीत

किलकि चहकि खिलत जात !

किलकि चहकि खिलत जात, हर डालन कलिका;
बागन में फागुन में, पुलक देत कहका !
केका कूँ टेरि चलत, कलरव सुनि मन चाहत;
मौन रहन ना चहवत, सैनन सब थिरकावत !
चेतन जब ह्वै जावत, उर पाँखुड़ि खुलि पावत;
अन्दर ना रहि पावत, बाहर झाँकन चाहत !
मोहत मोहिनी होवत, सुरभित सुषमा सोहत;
सुरमय शोभित सहमित, शाश्वत सुन्दर भावत !
लहरा गहरा फुहरा, वायु के संग विचरा;
प्रभु कौ भव झाँकि पाति, ‘मधु’ की हर हिय कणिका !