लघुकथा

लघु कथा – शान्ति का रसास्वादन

चेतना आज बहुत खुश है, परन्तु उसका दिमाग़ भी ख़लबली मचाए हुए है| लगभग बाईस वर्षों बाद उसके सास-ससुर उसके घर आ रहे हैं| सास-ससुर? हाँ…. हाँ….. वही सास-ससुर, जिन्होंने आज से ठीक बाईस वर्ष पहले उन्हें धक्के मार कर अपने घर से बाहर निकाल दिया था| उस समय उनके पास तन पर कपड़ों के सिवा और कुछ भी नहीं था| वह तो किशन, देव रूप में उसके साथ शादी के पवित्र बंधन में बंधा हुआ था| दोनों ने अपनी गृहस्थी को इस मुक़ाम पर ला खड़ा किया कि वही सास-ससुर आज उसके घर में रहने आ रहे हैं|

चेतना का शैतानी दिमाग़ उसे प्रेरित कर रहा था कि जिस प्रकार से सास-ससुर ने बाईस वर्ष पहले उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाला था, उसी प्रकार अब वह उन्हें प्रताड़ित कर अपमानित कर अपने घर से धक्के मार मार कर निकाले और अपने बाईस वर्ष पहले हुए अपमान का बदला ले ले|

तभी घर की डोर बैल बजी| चेतना ने जल्दी से दरवाज़ा खोला| सामने किशन खड़ा था| उसके पीछे बूढ़े सास-ससुर खड़े थे| उसने भारतीय परम्परा का निर्वहन करने की खाना पूर्ति करने के लिए सास-ससुर के पाँव छुए| ससुर ने चेतना के सर पर हाथ रखा और सास ने उसे गले लगाया| सास के गले लगे हुए चेतना ने अपने कंधे पर कुछ गीला-गीला महसूस किया| उस गीलेपन की गर्मी ने चेतना के दिल को जगाया| दिल ने आवाज़ लगाई “समय समय की बात है, जिन्होंने उस वक्त तुम्हे बेघर किया था वही आज तुम्हारे घर में शरण मांगने आए हैं| अपने दिमाग़ की बात मान कर इन्हें धक्के मार कर घर से निकाल दो और इस परम्परा को आगे बढ़ाओ या फ़िर इनकी सेवा कर इस परम्परा को यहीं दफ़न कर डालो|”

चेतना ने अपने दिल की आवाज़ को तवज्ज़ो दी| अब उसकी आत्मा शान्ति का रसास्वादन कर रही थी|

विजय ‘विभोर’
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