कवितापद्य साहित्य

अधूरा

यूँ कुछ रोज़ से एक ख्याल आता है मुझको
कोई ग़ज़ल जो कहूँ अधूरी रह जाती है
गर तस्वीर बनाऊ रंग नहीं मिलते हैं
सारे रंग और लफ्ज़ बे-मानी हो जाते हैं

जाने कोई गुमान सा मुझ पर छा जाता है
शायद मेरा मिजाज़ ही आड़े आ जाते है

मैंने काम कोई भी पूरा कहाँ किया है
ना ही किसी को टूट के प्यार किया है मैंने
ना कोई शख्स ही दिल से विदा हुआ है मेरे
ना ही किसी को ख़त बेनाम लिखा है मैंने
ना तो कोई जवाब ही है जो ढूंढ रहा हूँ

शायद कोई इक शब् अधूरी बसर हुई है
शायद कोई इक ख्वाब अधूरा छोड़ दिया है

यूँ कुछ रोज़ से एक ख्याल आता है मुझको……………………

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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