व्यंग्य कविता : लिखता हूं पर छपता नहीं
“बसंती दादूर” के वचन । कभी कोई सुनता नहीं।। लिखता हूं रातें जगजग कर। कमबख्त फिर भी छपता नहीं।। रचनाएँ मेरी
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Read Moreपीछे ते कूक देत, आवत गिरधारी; परिकम्मा गोवर्धन, देवत त्रिपुरारी ! कीर्तन करि चेतन स्वर, तरत जात गातन गति; मुरली
Read Moreमुश्किल तो होती डगर, चली हुई आसान कठिन मान लेते जिसे, आलस में नादान बड़ी चूक करते सदा, अपनी मंजिल
Read Moreमैं प्यार हूँ जी हाँ मैं प्यार हूँ, दिल मेरा बसेरा है.. पर आज मैं भटक रहा हूँ यहाँ से
Read Moreसुख के बादल कभी न बरसे, दुख-सन्ताप बहुत झेले हैं! जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत फैले हैं!! अनजाने से
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Read Moreचेतना आज बहुत खुश है, परन्तु उसका दिमाग़ भी ख़लबली मचाए हुए है| लगभग बाईस वर्षों बाद उसके सास-ससुर उसके
Read Moreजब तलक युग अर्थ-प्रधान रहेगा आपसी सम्बन्धों में व्यवधान रहेगा वक्त कितना भी हो जाए विकसित तन पर भी नहीं
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