// अहा ! जीवन..//
हे जीवन ! तुम मन हो !
मानसिक क्रीड़ा हो !
प्राकृतिक नियमों को
कभी तिरस्कार करते हो
तो कभी स्वीकार
कभी स्वीकार करते हो
तो कभी तिरस्कार
तुम्हारी सोच – समझ में
रच पाते हो ! नियम !
अपनी ओर से अनेक
बुद्धि के खेल में
रोते – रूलाते
अपने को अजेय मानते
वाद -विवादों में, भेद – विभेदों में
द्वंद्वात्मकता का मंथन किये हो !
एकता की साधना में
तथ्य दीप के सामने
उलझनों से मुक्त होते – होते
दीप बुझा के
क्यों ,अनायास सिकुड़ जाते हो
नये उलझनों में !
यह बड़ी विचित्रता है तुम्हारी !