कविता

अनुकूल​

इन अनंत मरुस्थल​ को देखो,
धूप में तपते रेतो को देखो,
सहनशीलता​ है कितनी इनमें ये तो समझो।
जरा कभी इनकी शीतलता को परखो।

तेज धूप​ में गर्म हो जाते हैं।
शीतलता में ये शीतल हो​ जाते हैं।
अनुकूल बनाते है अपने को​ ये कैसे।
शीतलता थी कहां छिपायी इन्होंने।

जब तक सूरज थे चमकते।
आग जैसे थे ये भी दमकते।
अब आई है​ चांदनी की बारी।
देखो इनकी शीतलता है न्यारी।

रामेश्वर मिश्र

रामेश्वर मिश्र

रामेश्वर मिश्र अभोली, सुरियावां भदोही, उत्तर प्रदेश मो-8115707312 9554566159 Email-- nirasug@gmail.com