कहानी

कहानी : मृगतृष्णा

यूॅ तो मोवाइल फोन में मालिनी दिन रात लगी रहती है परन्तु अगर किसी का फोन आ जाये तो बहुत बुरा मुॅह बनाती है. जैसे पूरे देश के लिये मंच पर बोलने का काम उसको सौप दिया गया हो. जबसे उसके हाथ में स्माट॔ फोन आया है तबसे वो आभासी दुनियाॅ से इस कदर जुङ गई थी कि उसे मुॅह से बोलकर बात करना बहुत दुल॔भ लगने लगा था.उसका कारण था कि 15 साल शादी के होने के बाद भी वो अपने पति से दूर रहती थी.उसके पति दिल्ली में एक प्राइवेट फम॔ में जाॅब करते थे और वह लखनऊ में अपने दो बेटों के साथ ससुराल में रहती थी.एक हफ्ते में पति का आना जाना रहता था.
जैसे ही फोन बजा मालिनी ने बुरा सा मुॅह बना कर फोन रिसीव किया.
हैलो……आप कौन.?…मालिनी ने रूखेमन से पूॅछा
“मै शिखा तेरी मुम्बई वाली सहेली”…उधर से आवाज आई.
“तू….तू सच कह रही है”..मेरा फोन नम्बर कहाॅ से मिला तुझे…?एक श्वाॅस में कई सवाल पूॅछ डाले मालिनी ने.
“शांत….शांत..शांत…बोलने तो दे मुझे…..शिखा ने कहा.
तेरी फेसबुक में एक शालिनी अरोङा नाम से जो लङकी है वो मै ही हूॅ…..दिया न सप्राइज तुझे”…शिखा की आवाज आई.
“ओह तो तू है वो”….मालिनी मुस्कुराकर बोली.
बहुत देर दोंनो सहेलियाॅ फोन पर बाते करती रही.ऐसे बतियाॅ रही थी जैसे वर्षो बाद बिछङे दो प्रेमी मिल रहे हो.आज मालिनी को फोन पर बतियाना बोझ नही लग रहा था.शिखा मुम्बई की रहने वाली थी.शादी भी उसकी वही एक बैंक के कम॔चारी से हुई थी.लखनऊ में शिखा की मौसी रहती थी जो मालिनी की माॅ की सहेली थी.वो अक्सर वहाॅ आती जाती रहती थी वही दोनो की मुलाकात हुई थी जो गहरी दोस्ती में बदल गई.आज के 16 साल पहले मोवाइल फोन सीमित लोगों के पास हुआ करते थे.शिखा के घर डाॅट फोन था पर मालिनी के घर वो भी नही था.एक दो बार ही फोन पर बात हो सकी दोनो की.तब दोनो सहेलियों ने निश्चय किया की वह खत से बात किया करेंगी.हर हफ्ते एक खत का आदान प्रदान होने लगा.चार महीने ही ये खतों का सिलसिला चल पाया कि अचानक एक दिन मालिनी ने शिखा को खत डालने से मना कर दिया.शिखा ने पूछा तो उसने कहा बाद में बतायेगी.तब से आज तक वो बात राज ही रही.क्योकि शिखा की मौसी लखनऊ छोङ कर देहरादून रहने चली गई थी.वो फिर कभी लखनऊ नही आई.
शिखा ने मुम्बई में एक फ्लैट खरीदा था.गृहप्रवेश का न्योता दिया था.परिवार सहित बुलाया था.पहले तो मना कर दिया मालिनी ने पर शिखा के बहुत कहने पर वह तैयार हो गई.बच्चों के पेपर और पति की उसी दिन ऑफिस मीटिंग होने के कारण उसका अकेले जाना तय हुआ.
इतनी दूर का सफर मालिनी ने कभी अकेले नही किया था इसलिये वो थोङा घबरा रही थी.शिखा ने कहा कि वह मुम्बई स्टेशन से उसे ले लेगी .इधर से पति ने कहा कि उनका भाई मालिनी को ट्रेन में बिठा आयेगा.अब मालिनी जाने की तैयारी में लग गई थी.कई नई ड्रेसेस खरीद लाई थी.बहुत उत्साहित दिख रही थी वो.
सुबह जाना था इसलिये जल्दी खाना खाकर वह बिस्तर पर पहुॅच गई.सोने की बहुत कोशिश कर रही थी परन्तु नींद उसकी ऑखों में दूर-दूर तक कहीं नही थी.बार-बार करवट बदल रही थी वह.जैसे खुद से कुछ छिपाने की कोशिश कर रही हो.अचानक वह उठकर बैठ गई.अलमारी से एक पुरानी डायरी निकाली जिसमें कुछ खत और कार्ड् रखे हुये थे.शायद वो शिखा के खत थे.कुछ खत को पढने के बाद मालिनी ने एक खत को उठाया और चूमा और फूट फूट कर रोने लगी.सारे खत अपने आस पास बिखेर कर वह 16 साल के अतीत की यादों में खोती चली गई.
वर्षो का जाना पहचाना स्वर अचानक कानो में गूॅज उठा.
“मालिनी आपके पास उपन्यास है कोई”….अचानक पीछे से विकास की सुनकर चौक गई थी वो.
“जी है”…अभी लाती हूॅ….कहकर वो घर चली आई.
विकास मालिनी की पङोसी भाभी का भतीजा था जो हर छुट्टी में आया करता था.मालिनी 12 साल की थी जब पावनी भाभी रहने आई थी.तब से दोनो परिवारों में आपस में बहुत बनती थी.वो विकास के साथ सुरू से ही उठती बैठती रही थी पर दोनो बोले कभी नही थे.उसके मुॅह से पहली बार अपना नाभ सुनकर बिजली सो कौध गई मालिनी के शरीर में.उसको कुछ सूझ नही रहा था
मालिनी बी.ए.प्रथम बष॔ में थी और बी एड की तैयारी कर रही थी.इस लिये इस समय उसने उपन्यास पढना बन्द कर दिया था.उसके पापा शौकीन थे पढने के वो भी कभी कभी पढ लेती थी.
पापा का कपाट खोलकर उसनेतीन उपन्यास उठाई और देने पहुॅच गई.
“ये लोजिये “…विकास की तरफ देखते हुये मालिनी ने हाथ बढा दिया.
“थैक्स,शाॅम तक दे दूॅगा”…विकाश ने उसकी ऑखों में झाकते हुये कहा.
“जल्दी नही है आराम से पढ कर दीजियेगा”…माल
िनी ने झट से कहा.और मुङ कर जाने लगी.उसके कदम उठ नहीं रहे थे.वो ठहर जाना चाहती थी वही पर कुछ पल के लिये.बहुत अजीब महसूस कर रही थी वो आज.विकास की आवाज वो वर्षो से सुनती आई थी पर आज क्या हो गया उसे.
घर जाकर वो अचेत सी लेट गई उसकी बेचैनी बढती जा रही थी.कह तो आई थी वो कि जल्दी नही है पर उसका मन कर रहा था अभी वो दौङ कर पहुॅच जाये.वह शाम का बेसब्री से इन्तजार कर रही थी.दिन मे वह कई बार पावनी के घर जाती थी पर आज न जा सकी.विचारों में घिरी कब सो गई पता ही नही चला.
एकदम हङबङा कर उठी देखा शाॅम हो गई वो भाग कर घर के पीछे दरवाजे पर गई.पावनी भाभी का भी दरवाजा था उधर.वो जाने का सोचती उससे पहले की विकाश उपन्यास ले आया “बहुत अच्छी स्टोरी थी”….विकास ने उसकी ऑखो में झाॅकते हुये कहा.
“जी” …विकास के हाथ से उपन्यास लेते हुये जवाब दिया उसने.
विकास जाने के लिये मुङा ही था कि..मालिनी ने पूछा
“वापस कब जा रहे है”
“कल शांम को”….रूखे मन से विकास ने जवाब दिया.
“कल और रूक जाइये”…उसकी ऑखो में झाकते हुये कहा मालिनी ने.
“नही”….रिजर्वेशन हो चुका है,जाना ही होगा…
समय मिले तो कल घर आइयेगा”…उदासी भरे स्वर में कहा विकास ने.
“जी ठीक है”….कहकर वह अन्दर चली गई.विकास भी कुछ पल ठहर कर उसे जाते हुये देखता रहा फिर अपने घर चला गया.
दोनों के चेहरे साफ बता रहे थे कि दोनों प्यार की आग में जल रहे है.अपने अचानक बदले भावों को वो दोनों भी समझ चुके थे .उन्हे यकीन नही हो रहा था कि वर्षो का मौन इस तरह प्यार में बदल जायेगा.वो दोनों तङफ उठे एक दूसरे के लिये.
इतनी खामोशी और संन्नाटा क्यों है?मालिनी मन ही मन तय कर चुकी थी कि रात होने से पहले एक बार पावनी भाभी के घर जाना जरूर है.
“मम्मी पावनी भाभी बुला रही है,मै चली जाॅऊ”
“हाॅ क्यो नही …? कुछ काम होगा”..माॅ ने जवाब दिया
चंद पलों के लिये मालिनी का चेहरा खुशी से खिल उठा.वह उठी और भागते कदमों से भाभी के घर पहुॅच गई.
ये सोचे बिना कि अगर भाभी ने इतने समय आने का कारण पूॅछा तो क्या बतायेगी.
“मालिनी क्या हुआ इस तरह क्यो भाग रही हो”…भाभी ने पूॅछा जो कि अपने दरवाजे के बाहर ही खङी थी.
“कुछ…कुछ नही भाभी”…बस ऐसे ही…हङबङा गई मालिनी.
“अच्छा अन्दर आ जाओ”…भाभी अन्दर जाते हुये बोली.
मालिनी की आवाज सुनकर विकास झट से बाहर आ गया.उसका भी चेहरा खिल उठा.
दोनों आमसे सामने बैठे थे.ऑखो ही ऑखो में बाते हो रही थी.अपार दद॔ साफ दिखाई दे रहा था दोनों की ऑखों में.क्यो न हो दद॔ जिस प्यार का अहसास आज ही हुआ वो कल ही नजरों से दूर हो जायेगा.उफ ए कैसा प्यार था.दद॔ का शैलाब उमङ रहा था ऑखों में.
मालिनी इस शैलाब को रोक नही पा रही थी तो उठकर खङी हो गुई.
तभी विकास ने एक कागज का टुकङा मालिनी की और बढाया.
“ये मेरा नम्बर और एड्रेस है,तुम अपना भी दे दे देना”…विकास ने नम ऑखो से कहा
“ठीक है”…..अब मै चलती हूॅ रात हो गई है”..हाथ में कागज का टुकङा लेकर मुङी ही थी कि ठिठक कर विकास की तरफ घूम गई
“सुनिये”…अगर फोन पर बात न हो पाये तो शिखा के नाम से खत डालियेगा.जिससे किसी को शक न हो”….मालिनी ने विकास से कहा.
“ठीक है”…विकास ने जवाब दिया विकास भी अपनी पलकें की नमी को रोक नही पा रहा था.ओह रब्बा !ये क्या..? आज प्यार कल जुदाई.
तब तक पावनी ए गई थी
अरे !मुझे तो ध्यान ही नही था कि तुम बैठी हो….खेद भरे स्वर में पावनी बोली.
“बस मै जा रही थी,आप ही का इन्तजार कर रही थी”….खङे खङे ही मालिनी ने कहा और मुङ कर चल दी.
रात बहुत मुस्किल से कटी दोनों की.सुबह हो गई थी दिन के बारह बजे विकास को निकलना था.वह बार-बार मालिनी के घर की तरफ देख रहा था.मुह में ही बङबङा रहा था.”प्लीज मालिनी आ जाओ”
इधर मालिनी अजीब कशमकस में थी.उसकी बेचैनी बढती जा रही थी विकास 6 महीने के लिये जाने वाला था.वो आज विकास के सामने ही रहना चाहती थी.पर क्या करे,कैसे सम्भव हो ?.कही किसी को शक न हो जाये.सुबह के 10 बज चुके थे.अब उससे नही रहा जा रहा था.उसने अपनी मम्मी से कहा कि वह विकास से उपन्यास लेने जा रही है.वह चला जायेगा.चूॅकि किसी को कोई शक नही था.बेरोक टोक आना जाना था तो उसकी माॅ ने कोई ध्यान नही दिया.
पावनी चली गई.पावनी को देख कर विकास मुस्करा दिया जैसे इसी पल का इन्तजार था उसको.उस समय घर में कोई नही था.पावनी छत पर कपङे डालने गई थी .विकास अकेला बराम्दें में बैठा था मालिनी वही कुछ दूरी पर जाकर ठिठक गई.विकास उठकर उसकी ओर आ रहा था.जैसे-जैसे विकास के कदम मालिनी की ओर बढ रहे थे मालिनी की ऑखों से उतनी ही तेज ऑसूॅ बह रहे थे.विकास बिलकुल करीब आकर ठिठक गया.
“जो तुम्हारी हालत है वही मेरी हालत है.अगर तुम इस तरह रोओगी तो मै जा नही पाऊॅगा”….उसके ऑसू अपनी उॅगलियों से पोछकर बहुत दुखी मन से वो बोला….उनकी गम॔ सांसे बहुत तेज होती जा रही थी.”प्लीज मत रो”….और वादा करो कि मेरे जाने के वाद रोओगी नही”…झटके से उसका हाथ पकङ कर विकास ने अपने सर पर रख दिया.
मालिनी बिलख पङी…उसके मुॅह से बोल न फूटा वो सिफ॔ सिर हिला सकी.
मालिनी का मन कर रहा था कि वो गले लग जाये विकास के और पूॅछे कि जाना ही था तो क्यों चंद पल के प्यार का अहसास दिलाया….परन्तु वह ऐसा नही कर सकी….चुपचाप सुबकती रही.
विकास की भी हालत उससे कम नही थी.पर वह अपने आपको सम्भाले हुये था.एक टक मालिनी को निहार रहा था.जैसे कह रहा हो..”कुछ पल ही सही,आओ गले लग जाओ.तुम्हारा एक अहसास मुझे उम्रभर का सुकून देगा”…..पर वह भी कुछ न कह सका.तब तक पावनी आ गई
“अरे मालिनी तुम कब आई”..
“बस अभी भाभी”…वो विकास से उपन्यास लेनी थी
“बैठो मै चाय बनाती हूॅ”…आज तो फुरसत ही नही मिली,विकास को जाना है तो उसकी तैयारी में लगी रही”….पावनी अपनी धुन में कहे जा रही थी.जबकि वो दोनों पावनी की बातों से बेखबर मजबूर तङफती नजरों से एकदूसरे को देखे चले जा रहे थे.किसी के पास कोई शब्द नही था कहने के लिये.तब तक पावनी चाय बना लाई.
“ये लो गर्मागम॔ चाय”उसने एक कफ मालिनी की तरफ बढाया
“नही भाभी मेरा बिलकुल मन नही है”….और उठ कर बह दौङते कदमों से दरवाजे से वाहर निकल गई.भाभी अवाक देखती रह गई.विकास तब तक सम्भाल चुका था खुद को.
“आज क्या हो गया इसको”…मुॅह में ही बङबङाई.चाय वापस लेकर किचन में चली गई.विकास भी वही कुर्सी पर ऑखे बन्द करके ठगा सा बैठ गया.
12 बजने वाले थे विकास तैयार हो रहा था परन्तु आज उसका मन जाने का मन नही हो रहा था.पर जाना निश्चित था.मालिनी इधर बहुत परेशान थी बिना खाये पिये रोये चली जा रही थी.मालिनी के मम्मी पापा गाॅव गये हुये थे उसके ताऊ जी के घर में कोई क्य॔क्रम था.उससे भी कहा था पर वो नही गई.12 का अर्लाम बजते ही वो हङबङा कर उठ बैठी…अनायास ही दरवाजे की तरफ भागी.जैसे ही कपाट खोले,इन्तफाक कहें या धङकनों का मेल कि विकास उस समय ठीक उसके सामने से गुजर रहा था.वो भी मालिनी के दरवाजे की तरफ ही देख रहा था.तङफ उठे दोनों एकदूसरे को बिछङता देख कर.
काश! ये वक्त यही रुक जाये.पर वक्त दोनों की नम ऑखों की परवाह किये बिना आगे बढ गया.नजरों से ओझल हो चुका था विकास.6 महीने की जुदाई का दद॔ ऑखों से फूटफूट कर बह रहा था.विकास जा चुका था.
धीरे-धीरे समय बीतने लगा.चहकती हुई मालिनी गुमसुम सी रहने लगी थी.अब पहले से और ज्यादा पावनी भाभी के पास समय काटने लगी थी.क्योकि उनके घर पर ही उस समय डाॅट फोन था मालिनी के रिस्तेदारों के फोन भी उन्ही के घर पर आते थे.विकास के वारे में ज्यादा से ज्यादा जानने के लिये वो घंटो भाभी से बाते करती रहती थी.दो महीने बीत गये मालिनी की सिफ॔ दो बार बात हो पाई थी वो भी तब जब उसने पीसीओ से की थी.विकास फोन कर नही सकता था.मालिनी की तङफ दिन पर दिन बढती जा रही थी.पाॅच महीने गुजरने के बाद एक दिन अचानक विकास का खत आया.उसने लिखा था कि वह उससे मिलना चाहता है.मालिनी के घर में शिखा को सभी लोग बहुत पसन्द करते थे.वो अक्सर खत में लिखा करती थी कि मालिनी को घूमने मुम्बई भेज दे.मालिनी ने घर में झूठ बोला कि शिखा स्टेशन से उसको ले जायेगी.समय कम होने की बजह से घर नही आ पायेगी.सबने हा कह दिया.तारीख निश्चित हो गई जाने की.मालिनी बहुत खुश रहने लगी थी पहले की तरह चहकने लगी थी.मन ही मन मिलने के सपने सजाने लगी थी.बाबली हो रही थी वो.अपने आपसे ही बाते करने लगती थी.वो जाने की पूरी तैयारी कर चुकी थी.जब मात्र 2 दिन जाने के बचे.डोरबेल घनघनाई मम्मी छत पर थी पापा ऑफिस.मालिनी ने दरवाजा खोला.पोस्टमैन कोई तार लाया था.
अज्ञात भय से दिल धङक उठा था मालिनी का.खोला उस राइटिंग को वो बखूबी पहचानती थी.विकास की थी
लिखा था
डिअर
अचानक मेरा ट्रासफर हो गया.इसलिये आई एम साॅरी.
फिर मिलेंगे.
तुम्हारी शिखा
मालिनी के हाथ से खत छूट गया.हजारों पहाङ टूट पङे उसके अरमानों पर.बेसुध सी गिर पङी वही.जैसे शरीर में जान ही न बची हो.ऑखें झरने की तरह बहने लगी.मालिनी को लगा जैसे ये आखिरी खत हो.
“मालिनी, कहाॅ हो”..तभी उसकी मम्मी ने आवाज दी
मालिनी ने जल्दी खत छुपा लिया ऑसू पोछे और खुद को सामान्य किया.
“मै तुम्हारी बुआ के घर जा रही हूॅ घर में ही रहना तुम”
“ठीक है”….मालिनी जवाब दिया
मम्मी चली गई थी.वो आकर बिस्तर पर लेट गई.खत बार-बार पढ कर वह रोये चली जा रही थी.मालिनी के पापा कई दिन से बाहर गये थे.शाॅम को वो भी आ गये.
मालिनी टूट सी गई बिल्कुल,विकास की जहाॅ पोस्टिंग हुई थी पावनी भाभी को भी वहाॅ का पता नही मालूम था.उनसे जानने की कोशिश की थी उसने.
तङफ उठती थी वो,कैसा प्यार था ये.एक पल का अहसास हजारों खुशियाॅ लेकर आया और दद॔ की चादर में लपेट कर चला गया.धीरे-धीरे एक महीना गुजर गया.अभी तक कोई खबर नही थी विकास की.
उस दिन उसके फूफा जी आये हुये थे शायद मालिनी के रिस्ते की बात हो रही थी
“लङका और परिवार बहुत अच्छा है अब तुम ज्यादा न सोचो हा कर दो”फूफा जी मालिनी के पापा से कह लहे थे.
“आप ठीक कह रहे है जीजाजी,अगर आपको पसंद है तो हा ही समझिये”मालिनी के पापा ने जवाब दिया.
मालिनी पर जैसे पहाङ टूट पङा.उसका दिमाग शून्य हो गया.करे तो क्या करे..?कैसे ये खबर विकास तक पहुॅचाये कोई रास्ता नही था उसके पास.मालिनी फूट-फूट कर रोने लगी.
“अरे तुम रो क्यो रही हो”क्या हुआ..?गले से लगा लिया उन्होने मालिनी को.उनको लगा शादी की बात सुनकर रोने लगी
“बेटी की विदाई निश्चित है बिटिया”
सर पर हाथ फिराते हुये प्यार से कहा,उसकी ऑखे भी नम हो गई थी.
फूफा जी और पापा जी ने लङका देखा और शादी पक्की कर दी.
बनारस से मालिनी को देखने लङके वाले घर पर ही आये थे.फैमिली ठीक थी पढे लिखे लोग थे.लङका प्राइवेट फम॔ में दिल्ली मे जाॅब करता था.एक महीने के अन्दर शादी होनी थी.10 दिसम्बर तारीख निश्चित हो गई.घर में जोरो से शादी की तैयारियाॅ शुरू हो गई.मालिनी के भइया भाभी भी एक महीने की छुट्टी लेकर आ गये थे.मालिनी अपना दद॔ छुपाने की कोशिश में लगी रहती थी.
एक दिन वह गुमसुम सी छत पर बैठी थी पावनी की छत की तरफ देखे जा रही थी.जहाॅ अक्सर गर्मियो में विकास बैठा करता था.अनायास ही मुस्कुरा पङी और ऑखो मे तमन्नाये मचलने लगी.अकेले ही बङबङाने लगी “काश ! वो एक बार विकास से लिपट कर रो लेती उसकी बाहों में अहसास के कुछ ही गुजार लेती.अपने अन्दर छुपे दद॔ को बता लेती.जिन्दगी भर न सही कुछ कदम ही साथ चल लेती.एक बार कह सकती कि वह उसे बहुत प्यार करती है.अपने लगातार बहते ऑसुओं से बेखबर वो कहती चली जा रही थी
“विकास,ये क्या कर गये आप,एक बार भी आपको मेरा ख्याल नही आया”…ऐसा नही हो सकता आप भी तो प्यार करते थे मुझसे”…या नही करते थे…?बोलो विकास सच क्या है…?क्या आपको कुछ भी अहसास नही हो रहा है”….पागलो की तरह वह खुद से बाते किये जा रही थी.और फिर रो पङी.कुछ देर यूॅ ही रोती रही नीचे से आवाज आई.शायद भाभी बुला रही थी.वह उठी ऑसमान की तरफ देखा जैसे कह रही हो की”या रब्बा एक बार जाने से पहले मिलादें उससे”पूॅछ तो लूॅ मेरा कुसूर क्या था ?…
फिर वो थके कदमों से नीचे उतर गई.
एक महीना गुजरते समय नही लगा तैयारियाॅ हो चुकी थी.अब बचे थे सिफ॔ पाॅच दिन.आज से शादी की रश्में शुरू होने वाली थी.मालिनी की उदासी दिख तो सबको रही थी पर कोई कारण नही समझ पा रहा था.वो घर से कम ही जाती थी इसलिये सबको लग रहा था वो इसी लिये दुखी है.एक दिन हल्दी एक दिन मेहंदी लग चुकी थी.अब मात्र तीन दिन शेष थे.वो ऑखे बन्द किये बैठी थी कि अचानक उसको लगा जैसे विकास ने उसको आवाज दी हो.हङबङा कर ऑखे खोली उसने.सामने पावनी भाभी खङी थी
“अरे बन्नो रानी ,ऐसे क्यो गुमसुम बैठी हो.अब तो खुश होने की वारी है”….बहुत सपने सजा रही हो क्या”…भाभी छेङ रही थी उसको.
“नही भाभी आइये बैठिये”..मालिनी ने सोफे की तरफ इशारा करते हुये कहा
“अभी नही बैठ सकती हूॅ,विकास आया है उसको खाना खिला कर आऊॅगी”..आज तुम्हारा संगीत है सोचती हूॅ जल्दी काम निपटा लूॅ”.पावनी सालीनता से बोली
“विकास…कब आये”…..झटके से खङी हो गई वह वो समझ नही पा रही थी खुश हो या दुखी.
“आज ही सुबह”….पावनी कहकर घर चली गई.
“उफ्फो” हे भगवान …येकैसा मजाक है….ये कौन सी सजा दे रहे मुझे…शादी का घर..अब क्या करूॅ कैसे मिलूॅ”…सर चकरा गया उसका.धम्म से सोफे पर बैठ गई वो.
वहाॅ का रिवाज था कि शादी के एक दिन पहले संगे संबन्धियो को लङकी अपने हाथ से बना हुआ खाना खिलाती थी आज शाम का खाना मालिनी को बनाना था.पावनी के परिवार की भी भी खाने पर बुलाया गया था.8 बजे खाना शुरू होना था.मालिनी रसोई से भोग का खाना निकाल रही थी.खाना लेकर जैसे ही दरवाजे की ओर घूमी कि सामने गैलरी से पावनी भाभी के साथ विकास को आता देख कर हाथ से थाली छूट गई जिसको विकास ने दौङकर सम्भाल लिया.मालिनी ने किसी तरह खुद को सम्भाला वो हक्की वक्की सी खङी थी.इतने मेहमानों के सामने बोलना तो दूर की बात वो जी भरके देख भी नही सकती थी.ऑसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थी विकास भी सूनी ऑखो से देख रहा था.
भोग के बाद खाना शुरू हो गया विकास ने थोङा खाया और उठ गया.मालिनी की तरफ देखकर बोला थोङा ठन्डा पानी चाहिये.
“जी अभी लाई”…मालिनी फ्रिज से पानी लेने चली गई.तब तक विकास एकांत में जाकर खङा हो गया.मालिनी पानी लेकर उधर ही बढ गई.मालिनी ने पानी बढाया विकास ने पानी लिया और एक कागज की पर्ची मालिनी के हाथ में पकङा कर घर चला गया.मालिनी जल्दी से कमरे में गई पर्ची खोली,लिखा था “9:30 पर बालकनी में आ जाना”…9 बज चुके थे.मेहमान खाना खाकर सोने चले गये औरते संगीत करने लगी थी.पावनी भी संगीत में थी.मालिनी जल्दी से जल्दी मिलने जाना चाहती थी.
जहाॅ 9:30 बजे वो सबकी नजर बचा कर बालकनी में गई जहाॅ वह पहले से ही मौजूद था.चूॅकि छतें सबकी मिली हुई थी इसलिये आसानी से विकास आ गया था.आहट पाकर विकास मुङा.एक छङ गवाॅये दोनो दौङ कर गले लग गये.विकास ने मालिनी को कसकर बाॅहो में भर लिया.दोनो बराबर रोये चले जा रहे थे.मालिनी का स्वर ज्यादा तेज था.कोई कुछ नही बोल रहा था.दस मिनट यूॅ ही आगोस में लिपटे रहने के बाद विकास ने मौन को तोङा
” हालात से समझौता करना पङता है,शायद हमारी किस्मत में इतना ही साथ था”सीने से लगाये प्यार से वालों पर हाथ फिराते हुये वो बोला.विकास ने माथे को चूॅम लिया.एक पल के लिये मालिनी की पलकों को बन्द कर दिया
होंठ भिच गये.मालिनी के हाथो का कसाव और बढ गया.
“शायद यही हमारी उम्रभर की मृगतृष्णा रहेगी,ये अधूरी इच्छाये हमें आखिरी श्वास तक साथ रखेगी”….विकास ने दुखी मन से उसकी ऑखों में झाकते हुये कहा
“मृगतृष्णा”…..झटके से अलग हटते हुये मालिनी बुदबुदाई.
ऐसि लगा जैसे मृगतृष्णा शब्द सुनकर उसकी सारी जिग्यासायें खत्म हो गई थी ,उसी मृगतृष्णा शब्द में विलीन हो गई मालिनी की तमन्नाये.चल दी वह विकास से बिना देखे बिना कुछ कहे.पीछे खुशियों का संसार छोङ कर, पल भर के अहसास की मृगतृष्णा को उम्रभर ढोने के लिये जैसे खुद को तैयार कर चुकी थी वो.
एक शब्द ने खत्म कर दिया था उसका सारा संसार.टूटी और चरमराई हड्डियों को समेट कर जोङ लिया था और बलि की वेदी पर खुद को चढाने चल दी थी.विकास ने भी रोका नही.ऑखे बन्द किये उसके कदमों की आहट को हमेशा के लिये अपने दिल में उतारना चाहता था वो.आहटे बन्द होते ही उसने ऑखे खोली आसमान की तरफ देखा.टूटते तारें से आज उसने कुछ नही माॅगा.
एकाएक घङी घनघना पङी. उसकी तन्द्रा टूट गई ऑखे गीली हो रही थी.आह निकल गई मुॅह से.कितना लम्बा समय गुजर गया अब वो जल्दी से जल्दी शिखा से मिलने के लिये उत्सुक थी.8 बजे की ट्रेन थी दिमाग को झटक कर वह जल्दी उठी और नहाधोकर तैयार हो गई.तब तक देवर और बच्चे भी उठ गये थे.बच्चों ने सामान चैक किया.मालिनी निकलने ही वाली थी कि उसे कुछ याद आया वो कमरे में गई शिखा और विकास के सारे खत समेट कर अपने पस॔ में रख लिये. वो शिखा को खत डालने से मना करने की सच्चाई बताना चाहती थी.मालिनी ट्रेन में बैठ गई थी शिखा को फोन भी कर दिया था.
दूसरे दिन सुबह मालिनी मुम्बई पहुॅच गई शिखा स्टेशन पर समय से पहले ही पहुॅच गई थी जिससे मालिनी को कोई परेशानी नही हुई.आज शाम ही बहुत बङी पाट्री थी.मेहमानों का आना जारी था.दिन में पूॅजा भी होनी थी जिस कारण शिखा मालिनी को ज्यादा समय नही दे पा रही थी.शिखा की फैमिली से मिलकर मालिनी बहुत खुश थी मुम्बई जैसे शहर में रहकर भी शिखा के बच्चों में संस्कार की कमी न थी.शाम पाॅच बजे पूजा पाठ समाप्त हो चुका था.अब शिखा फ्री हो पाई थी.पाट्री किसी होटल में थी इसलिये वहाॅ करना ही नही था.
शिखा के पति दिनेश का स्वभाव बहुत अच्छा था.पहली बार मिले थे फिर भी बहुत मिल जुल गये थे.
“शिखा सात बजे होटल निकलना है सबलोग तैयार हो जाना,मै स्टेशन जा रहा हूॅ पूना से मेरा कुछ दोस्त आ रहे है”.शिखा दिनेश के सभी दोस्तों को जानती थी उसने हाॅ से सिर हिला दिया.
सात बजे सब तैयार हो गये मालिनी ने गुलावी रंग की हल्के वाड॔र की साङी पहनी थी.आज भी वो बहुत खूबसूरत दिखती थी.सब होटल पहुॅच गये.शिखा मेहमानों की आवभगत में लग गई.इस समय मालिनी खुद को अकेला महसूस कर रही थी.क्योकि सब व्यस्त थे.मालिनी भारी भरकम साङियों और आर्टीफिशियल जेवरों से लदी औरतों को देख कर खुद को बङा बहुत हल्का महसूस कर रही थी.लङकियों के आधे बदन कपङे फूहङता का परिचय देते महसूस हो रहे थे उसे.मालिनी एक एक को बहुत गौर से देख रही थी.और अपने मन में ही सबकी खूबियाॅ और अच्छाइयों को बुदबुदा रही थी.
अचानक उसकी नजर एक व्यक्ति पर पङी जो अन्य दो लोगों से बात कर रहा था शायद वो दिनेश के दोस्त थे.पर उस शख्स की पीठ थी मालिनी की तरफ फिर भी मालिनी को लग रहा जैसे वो जाना पहचाना है.वो आगे बढकर देखने को सोच ही रही थी कि शिखा और दिनेश आ गये
“माॅफ करना आप अकेले पङ गुई हम दोंनो मेहमामो में व्यस्त हो गये”….शिखा के बोलने से पहले ही दिनेश बोला
“कोई बात नही”…इतने मेहमानों में मै अकेली कहाॅ हूॅ”..मालिनी ने सालीनता से जवाब दिया
“दिनेश…दिनेश..मालिनी के पीछे से जाना पहचाना स्वर
मालिनी को जैसे करेंट लग गया हो.इस आवाज को वो कभी नही भूल सकती थी.उसके रोम-रोम में इस आवाज के स्वर समाये हुये थे.स्वर पीछे से आया था वो एकाएक घूमी तबतक वो व्यक्ति मालिनी के बिलकुल पीछे आ चुका था.मालिनी उससे टकराई उसका पस॔ उस व्यक्ति के ब्रेसलेट में उलझ कर खुल गई.पस॔ से सारा सामान गिर गया.
मालिनी अवाक खङी थी क्योकि वो और कोई नही विकास था.नेवी की नौकरी छूटने के बाद उसने बैक में जाॅब कर ली थी कुछ समय पहले दिनेश की पोस्टिंग भी पूना में थी जहाॅ दोनो में घनिष्ट दोस्ती हो गई
विकास मालिनी का चेहरा देखे बिना ही साॅरी बोल कर नीचे बैठ गया शिखा भी गिरा हुआ सामान उठाने लगी
शिखा और विकास जब खङे हुये तो उनके हाथों में मालिनी के खत थे.दिनेश को किसी ने आवाज दे दी थी वो जा चुका था
विकास एक बार खत को देखता एक बार मालिनी को.किसी और के लिखे खतों पर अपना नाम देख कर शिखा सब भाॅप चुकी थी
“मालिनी तुम यहाॅ”….आश्चय॔ से पूछा
“जी मेरी दोस्त है शिखा”….आगे उसने कुछ नही कहा
दोनो की धमिनियों में जैसे खून ही न रहा हो
शिखा ने विकास के हाथ से खत लेकर जैसे ही अपने से अलग लेख में खत देखे और भेजने वाले के नाम की जगह अपना नाम देखा वो बिना मालिनी के बताये सबकुछ समझ गई.
दोनो एकटक देखे जा रहे थे एक दूसरे को.बहुत ज्यादा नही बदला था सबकुछ वैसा ही था.सूरत से लेकर सीरत तक वैसी ही थी
तभी खत की तरफ इशारा करके विकास आश्चय॔ से पूछा
“अभी तक सम्भाल कर रखे तुमने”…..
भरे गले से मालिनी ने सहमति से सिर हिलाया….
“ओह ! इतने बरस बाद फिर क्यों आप मेरे सामने आये है ? तुम्हारी मृगतृष्णाएं लिप्त यादें क्या कम थी मुझे पल-पल मारने के लिये.स्मृतियों के इस भवंरजाल में आपके साथ कई बार मै जी चुकी हूॅ ,कौन सा दद॔ बाकी था जो फिर सामने आप आये है”….ऑखों ही ऑखों में वो सबकुछ कहे चली जा रही थी.विकास ऐसे देख रहा था जैसे उसकी ऑखो की एक-एक बात समझ रहा है और कह रहा हो
“जिया तो मै भी नही हूॅ तुमसे बिछङ कर एक पल भी,तुम किसी साये की तरह हमेशा मेरे साथ रही हो.हम दोनो ने बराबर की सजा काटी है”….
तभी शिखा आ गई और दोनो का मोह भंग हो गया.एक पल के अहसास में जिन्दगी का आधा सफर मृगत्तृष्णा में बीता,,एक बार फिर वही चुभन वही दद॔.शायद ये अंतिम यात्रा तक साथ चलने का दद॔भरा बृतांत था.

नीरू “निराली”

नीरू श्रीवास्तव

शिक्षा-एम.ए.हिन्दी साहित्य,माॅस कम्यूनिकेशन डिप्लोमा साहित्यिक परिचय-स्वतन्त्र टिप्पणीकार,राज एक्सप्रेस समाचार पत्र भोपाल में प्रकाशित सम्पादकीय पृष्ट में प्रकाशित लेख,अग्रज्ञान समाचार पत्र,ज्ञान सबेरा समाचार पत्र शाॅहजहाॅपुर,इडियाॅ फास्ट न्यूज,हिनदुस्तान दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित कविताये एवं लेख। 9ए/8 विजय नगर कानपुर - 208005