कविता

कविता : रचना

खुबसूरत  रचना  का ,  गुनाह  ही  क्या  था  ?
सुलझी  थी , वो ! मगर किसी ने समझा  न  था  ॥

पढ़ा  तो ,  हर  मुखड़ा ..हर मिसरा उसका  ।
मगर’ दिल  किसी  ने  शायद समझा ही न  था  ॥

नादान  थी !  मगर  जिंदगी वो ! समझा  रही  रचना  ।
लिख के आसू अपने ,  दुनियाँ  को कुछ सिखा रही ॥

अपना  हर दर्द   कहती … लिख ,   वो !  रचना  ।
मगर  दर्द  में उतर,  उसे  किसी ने , समझा  ही न था  ॥

यूँ  तो  जिन्दगी  की सुलझी … किताब  थी , वो   ।
मगर ,  सफे  पलट के ,   किसी ने  देखा  ही न  था ॥

शायद  , आत्मा  से   लिखती  थी  ,  वो  ! रचना  ।
मगर  उसकी  आत्मा को ,  किसी ने  पढ़ा  ही न था  ॥॥

रीना सिंह गहलौत 'रचना'

कवयित्री नई दिल्ली