कविता

मर गई गुड़िया..

गुड़ियों के साथ खेलती थी गुड़िया
ता-ता थइया नाचती थी गुड़िया
ता ले ग म, ता ले ग म गाती थी गुड़िया
क ख ग घ पढ़ती थी गुड़िया
तितली-सी उड़ती थी गुड़िया !

ना-ना ये नही है मेरी गुड़िया
इसके तो पंख है नुचे
कोमल चेहरे पर ज़ख़्म भरे
सारे बदन से रक्त यूँ है रिसता
ज्यों छेनी हथौड़ी से कोई पत्थर है कटा!

गुड़िया के हाथों में अब भी है गुड़िया
जाने कितनी चीख़ी होगी गुड़िया
हर प्रहार पर माँ-माँ पुकारी होगी गुड़िया
तड़प-तड़प कर मर गई गुड़िया
कहाँ जानती होगी स्त्री का मतलब गुड़िया!

जिन दानवों ने गुड़िया को नोच खाया
पौरुष दंभ से सरेआम हुंकार रहा
दूसरी गुड़िया को तलाश रहा
अख़बार के एक कोने में ख़बर छपी
एक और गुड़िया हवस के नाम चढी!

मूक लाचार बनी न्याय व्यवस्था
सबूत गवाह सब अकेली थी गुड़िया
जाने किस ईश का शाप मिला
कैसे किसी ईश का मन न पसीजा
छलनी हुआ माँ बाप का सीना!

जाने कहाँ उड़ गई है मेरी गुड़िया
वापस अब नही आएगी गुड़िया
ना-ना अब नही चाहिए कोई गुड़िया
जग हँसाई को हम कैसे सहे गुड़िया
हम भी तुम्हारे पास आ रहे मेरी गुड़िया!

डॉ जेन्नी शबनम (1. 6. 2017)