सामाजिक

अमृत

अर्धांगिनी साहबा एक दिन गुरदुआरे से आई। अपने हैंड बैग से उस ने छोटी सी एक शीशी निकाली और बोली,” यह लो थोह्ड़ा सा अमृत पी लो, गुरमीत कौर इंडिया से लाइ है और यह अमृतसर हरमंदर साहब से मिला है “, पत्नी की कोई न कोई सखी इंडिया को जाती आती रहती है और कभी किसी गुरदुआरे से और कभी किसी गुरदुआरे से प्रसाद या अमृत आता ही रहता है। मैंने यह अमृत पी लिया और हंस कर बोला,” यह पानी ही तो है ! “, पत्नी बोली, ” आप तो धर्म कर्म में विशवास ही नहीं रखते लेकिन मेरा तो पक्का विशवास है “, मैंने कहा, ” मैं मानूँ या न मानूँ लेकिन तुम को कभी भी कोई धार्मिक रस्म या विशवास करने से नहीं रोका, मैं तो सिर्फ यह ही बात कह रहा हूँ कि पानी चाहे किसी भी गुरदुआरे मंदिर से हो या घर के हैंड पंप से हो, पानी हमेशा अमृत ही होता है “, पत्नी बोली, “वोह कैसे ?”, मैंने कहा, ” यह पेड़ पौदे जो हैं, पानी से ही जीवत हैं, पानी के बगैर सूख कर मर जायेंगे, यह पानी ही है जो सारे पेड़ पौदों को जमीन से खुराक ले कर पेड़ पौदे को ट्रांसपोर्ट करता है। जब कोई प्यास के कारण मर रहा हो, कहीं पानी दिखाई ना दे और बेहोश होने की स्थिति में आ जाए तो उस वक्त कोई अचानक कहीं से आ कर उस के मुंह को पानी के कुछ कतरे पानी के लगा दे तो उस वक्त वोह पानी अमृत ही होता है, चाहे वोह गुरदुआरे का हो, चाहे किसी तालाब से ही क्यों न हो “, पत्नी हंस पढ़ी और बोली, ” बात तो तुम्हारी बिलकुल सही है, फिर भी धर्म कर्म में विशवास होना भी बहुत जरूरी है”
बात गई आई हो गई। उस दिन फ्राइडे था और फ्राइडे सैचुरडे दो दिन मैं एक या दो कैन बियर के पीता हूँ। इतनी थोह्ड़ी बियर से कोई शराबी तो नहीं होता लेकिन सिगरेट पीने जैसा सरूर तो हो ही जाता है। इतनी सी बियर पीने से ही दिमाग का घोडा कुछ तेज दौड़ने लगता है। बियर पीते पीते मैं अमृत के बारे में सोचने लगा। सोचते सोचते मैं पचास साल पीछे चला गया, जब मैंने एक अमेरिकन रिचर्ड हिटलटन की किताब बी यंग विद योगा पढ़ी थी, जिस से मेरी रूचि योगा की तरफ हुई थी और आज भी जितना हो सके करता हूँ। इस किताब में उस ने एक कहानी लिखी थी कि एक बादशाह घोड़े पर बैठ कर दूर दूर तक दुनिआं के सभ से अच्छे हीरे की तलाश कर रहा था। वोह ढूंढ ढूंढ कर हार गया था लेकिन अचानक उस का मिलन एक भेड़ बकरिआँ चराने वाले एक बूढ़े चरवाहे से हो गया। बूढ़े चरवाहे के पूछने पर बादशाह ने अपनी बात कही तो बूढ़ा एक दम बोला, ” बादशाह सलामत, वोह कीमती और अच्छा हीरा तो आप के दिमाग में है “, कहानी कुछ और लंबी थी लेकिन मैं सोचने लगा कि जिस को हम अमृत मानते हैं, उस को अपने हाथों से हर रोज़ हम बेदर्दी से बर्बाद कर रहे हैं, यानी “पानी”, जिस के बगैर हम जी ही नहीं सकते। यह सोच, दिमाग में होती तो है लेकिन बादशाह के हीरे की तरह हम को दिखाई नहीं देता और जिस के दिमाग में यह बात समझ में आ जाए, उस को अमृत के सही अर्थ समझ आ जाते हैं।
एक दफा मैं फिर से बचपन के 1953 54 के समय में आ जाता हूँ। तब मैं शनिचर और रविवार को गाये भैंसें चराने के लिए, हमारी चरागाह को जाय करता था। हमारी इस चरागाह के साथ अन्य लोगों की चरागाहें भी होती थीं, जिन में और भी बहुत से लड़के लड़किआं पशु ले कर आया करते थे। पशु घास का मज़ा लेते रहते और हम मिल कर खेलते रहते। इन चरागाहों में घास तो था ही लेकिन घने बृक्ष भी बहुत हुआ करते थे जो मीलों दूर तक फैले हुए थे। इन बृक्षों में छोटे छोटे नाले होते थे जिन में पशु, पानी पीते रहते थे और हम सब एक छोटी सी कूईं के नज़दीक आ कर घरों से लाये पराठे जो अक्सर आम के अचार और प्याज़ के साथ होते थे, बड़े मज़े से खाते थे। कूईं का पानी बीस पचीस फ़ीट ही नीचे होता था और हम एक बाल्टी से पानी निकाल लेते और एक दूसरे को पिलाते। इस कूईं के पास से ही रास्ता जाता था, और लोग अक्सर इस कूईं पर आ कर अपनी पियास बुझाते थे। यह सभ बताने का मेरा एक ही मकसद है, “पानी” . अब वोह कूईं तो शायद चालीस साल से पहले ही मट्टी से भर दी गई थी क्योंकि उस का पानी सूख गया था लेकिन अब तो ना ही वहां कोई बृक्ष है और ना कहीं पानी। पहले पहले इस रास्ते पर जो अब सड़क है,पानी के लिए नल लगा दिया गया था लेकिन अब कोई नल नहीं है क्योंकि पानी का सत्तर ज़मीन के इतना नीचे चले गया है कि नल लग ही नहीं सकता। बृक्षों की बात कर रहा था, यह गाँव के सिर्फ इस ओर ही नहीं थे बल्कि गाँव के चारों ओर होते थे और इन बृक्षों के बीच बहुत से तालाब भी होते थे, जिन में सभ पशु, पानी पीते रहते और भैंसें तैरती रहतीं। उन दिनों बारशें इतनी होती थीं कि सब तालाब पानी से भर जाते और गाँव के सभी कुओं का पानी का लैवल ऊपर हो जाता। इतने बृक्ष सिर्फ हमारे गाँव में ही नहीं बल्कि सभी गावों में होते थे। इसके अतिरिक्त हर एक कुएं के इर्द गिर्द बड़े बड़े आम शहतूत या यामुन के बृक्ष होते थे। आज मैं सोचता हूँ कि उस वक्त कितनी हरिआली और बेतहाशा पानी होता था और मज़े की बात यह भी थी कि ज़िआदा पानी होते हुए भी, बेकार बिलकुल नहीं होता था। मर्द और बच्चे तो ज़्यादा कुएं पर ही नहा लेते थे और पानी वहीँ का वहीँ रह जाता था। सिर्फ महलाएं ही थोहड़े से पानी से घर में ही सनान कर लेती थीं। खुल्ले में शौच उस वक्त बहुत सेफ था और एक डिब्बे पानी से ही सफाई हो जाती थी। आज घर में शौचालय बनने तो लगे हैं लेकिन मेरा इच्छारा फ्लश किये जाते पानी से है जो एक डिब्बे से कहीं ज़्यादा होता है। नहाते समय भी शावर में जरुरत से ज़्यादा पानी इस्तेमाल होता है जो बर्बाद ही हो जाता है। गाये भैंसें पहले तालाबों से पानी पी लेती और सनान भी कर लेती थीं, तालाब तो अब है नहीं, पानी मोटर पंप के ज़रिये धरती के नीचे से ही आता है। घर घर में गाड़ीआं हैं और रेडिएटरों में पानी डालना पड़ता है। गाड़ीआं धोने के वक्त कितना पानी बर्बाद होता है, किसी के दिमाग में आता ही नहीं है कि इस पानी को बचाएं । पहले गाँवों में तो कोई गाड़ी होती नहीं थी , सिर्फ शहरों में ही कोई कोई गाड़ी होती थी। इन गाड़िओं से पानी की खपत कितनी बड़ी ?
खेती बाड़ी की तो बात करनी ही बेकार है क्योंकि ट्यूबवैलों से पानी निकाल निकाल के हम ने धरती माँ को कंकाल कर दिया है। ज़रा, एक सैकंड सोचें तो जब कुएं का पानी महज़ बीस पचीस फ़ीट धरती के नीचे था, अब ट्यूबवैल भी जवाब दे रहे हैं और सबमर्सीबल पंप लग रहे हैं। एक तो ऐसे पंप लगाने की कीमत बढ़ गई दूसरे पानी और नीचे जा रहा है। हर दो साल में एक मीटर पानी की सतह नीचे जा रही है। मैं जानता हूँ कि मेरे समय में पंजाब में चावल की खेती का रिवाज़ नहीं था। कोई कोई किसान ही बीजता था और वोह भी मुश्किल से एक कनाल जगह में क्योंकि पंजाबी लोग उस समय चावल सिर्फ किसी मेहमान के आने पर या शादिओं के वक्त ही बनाते थे। 1970 के बाद तो पंजाब में चावल बहुत बीजा जाने लगा क्योंकि इस से जल्दी आमदन हो जाती थी लेकिन इस की कीमत भी पंजाबिओं को अदा करनी पढ़ रही है। चावल को उगाने के लिए पानी बहुत चाहिए और इस को तो बीजा भी खड़े पानी में जाता है। चरागाहों की बात मैं लिख चुक्का हूँ, वहां बृक्ष ही बृक्ष होते थे जिन को पानी की कोई जरुरत नहीं होती थी लेकिन अब उन चरागाहों पर खेत ही खेत हैं, जिन को पानी की जरुरत है और पानी की खपत और भी बढ़ गई।
आज हम अमीर हो गए है। बड़ी बड़ी कोठीआं बन गई हैं और आगे बन रही हैं। पानी के बगैर तो इमारतें बन नहीं सकतीं। बड़े बड़े होटल रैस्टोरैंट बन गए हैं, जिन में तरह तरह के ड्रिंक हैं, बीयर है, बस पी जाओ और टॉयलेट में जा कर इस पानी को बर्बाद करते जाओ। पानी जमा करने के लिए कोई तालाब नहीं बचा क्योंकि वहां खेत बन गए हैं। चरागाहों की बात मैं ने लिखी थी, उस वक्त भारत की आबादी 36 करोड़ थी, अब 125 करोड़ है और अंदाजा है कि 2050 तक 150 करोड़ हो जायेगी। इतने लोगों के लिए ज़्यादा अनाज़ उगाने की होड़ में अंग्रेज़ी खाद के बोरे भर भर खेतों में डाल रहे हैं। नए नए कीट पतंग पैदा हो रहे हैं, जिन को मारने के लिए पैस्टीसाइड जैसी ज़हरें खेतों में फैंक रहे हैं। जैसे ब्लड प्रैशर की दवाई लेने से, धीरे धीरे तरह तरह की दवाईआं बढ़ती जाती हैं, उसी तरह पैस्टीसाइड बेअसर होने लगता है और फिर दूसरे पैस्टीसाइड इस्तेमाल करने पड़ते हैं। मैंने तो यह भी सुना है कि कई किसान तो यह ज़हरें सप्रे करते करते ही भगवान् को पियारे हो गए। इतनी खाद और सप्रे पर पैसा खर्चते खर्चते अगर ज़्यादा बारिश या सूखा पढ़ जाए तो किसान यह आर्थिक नुक्सान कैसे पूरा कर सकता है, खुदकशी के सिवाए उस के पास चारा भी किया है।
धरती का जो पानी अब हमारे पास बचा है, उस को शौचालय बना के हम ज़हरीला बना रहे हैं क्योंकि आखिरकार तो यह पानी धरती में ही जाता है। घर में शौचालय है तो बहुत अच्छा है लेकिन गंदा पानी ड्रेनेज सिस्टम पाइपों के जरिए बाहर जाना चाहिए और फिर इसी गंदे पानी को ट्रीटमेंट प्लांट के जरीये रीसाइकल होना चाहिए जैसे यहां इंग्लैंड जैसे देशों में होता है। अब बात करते हैं, इंडस्ट्री की, तो भारत इंडस्ट्री लगाने में चीन का मुकाबला कर रहा है लेकिन इंडस्ट्रियल वेस्ट को नदिओं में डाल कर उसे ज़हरीला बना देना किया उचित है ? गंगा की सफाई, बहुत वर्षों से सुन रहा हूँ लेकिन इसी गंगा के किनारे मृत देह को जला के गंगा में ही फेंकते जाना किया उचित है ? ज़हरीले रंग की मूर्तिओं को नदिओं में ही फेंक कर पानी को दूषित करना, किया उचित है। आस्था के नाम पर दिए जला कर पानी में छोड़ते जाना किया उचित है ? पानी पानी पानी, कहाँ तक पानी की खपत को बयान करूँ, अब तो कोठिओं में फूलों की भरमार भी बढ़ गई है। है तो यह अच्छी बात क्योंकि इस से सुंदरता तो बढ़ती ही है, पर्यावरण भी शुद्ध होता है लेकिन पानी की खपत तो बड़ी ही ! अगर हम पानी को नहीं बचाएंगे तो इस पानी से कब तक गुज़ारा करेंगे ? कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा कि यह पानी सच्च मच में अमृत हो जाएगा ?