सामाजिक

क्यों न फिर से निर्भर हो जाए

आज की दुनिया में हर किसी के लिए आत्मनिर्भर होना बहुत आवश्यक माना जाता है। स्त्रियाँ भी स्वावलंबी होना पसंद कर रही हैं और माता पिता के रूप में हम अपने बच्चों को भी आत्मनिर्भर होना सिखा रहे हैं।
इसी कड़ी में आज के इस बदलते परिवेश में हम लोग प्लैनिंग पर भी बहुत जोर देते हैं। हम लोगों के अधितर काम प्लैनड अर्थात पूर्व नियोजित होते हैं। अपने भविष्य के प्रति भी काफी सचेत रहते हैं इसलिए अपने बुढ़ापे की प्लैनिंग भी इस प्रकार करते हैं कि बुढ़ापे में हमें अपने बच्चों पर निर्भर नहीं रहना पड़े। यह आत्मनिर्भरता का भाव अगर केवल आर्थिक आवश्यकताओं तक सीमित हो तो ठीक है लेकिन क्या हम भावनात्मक रूप से भी आत्मनिर्भर हो सकते हैं?
क्या हमने कभी रुक कर सोचा या फिर पलट कर स्वयं से यह सवाल किया कि क्यों हम अपने बच्चों पर निर्भर क्यों नहीं होना चाहते? सम्पूर्ण जीवन जिस परिवार को सींचने में लगा दिया उसे एक पौधे से वृक्ष बना दिया और जब उस वृक्ष की शाखाओं में लगे फलों का आनंद लेने का समय आए तो आत्मनिर्भरता का राग क्यों गाया जाता है?
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अपने भोजन कपड़े मकान इलाज आदि जीवन की हर छोटी बड़ी चीज़ के लिए हम एक दूसरे पर निर्भर रहते ही हैं। केवल मनुष्य ही क्यों सम्पूर्ण सृष्टि जीव और जड़ जगत एक दूसरे पर निर्भर है तो फिर अपने ही बच्चों से यह दूरी क्यों?
आज क्यों हम अपने बच्चों से अपेक्षा नहीं करना चाहते? जिस बच्चे को हमने अँगुली पकड़ कर बचपन में चलना सिखाया क्यों बुढ़ापे में हम उसकी अँगुली की अपेक्षा न करें?
हमारा समाज जिसकी नींव परिवार की यही शक्ति थी हम सभी क्यों उसे खत्म करने पर तुले हैं?
हम सभी किस घमंड में जी रहे हैं?
यह तो प्रकृति का चक्र है बचपन से जवानी, जवानी से बुढ़ापा प्रकृति के इस नियम को हम सहजता के साथ स्वीकार क्यों नहीं करते ?
जब हम सभी को एक दुसरे की जरूरत है तो इसे मानते क्यों नहीं ?
आज क्यों हम और हमारे बच्चे दोनों इस बात को स्वीकार करने में संकोच करते हैं कि जिस प्रकार बचपन में एक बालक को माता पिता की आवश्यकता होती है उसी प्रकार औलाद माता पिता की बुढ़ापे की लाठी होती है?
क्यों हम इस सच्चाई से मुँह छिपाते हैं कि बुढ़ापा तो क्या जीवन का कोई भी पड़ाव केवल पैसों के सहारे नहीं गुजारा जा सकता?
क्यों हम अपने बच्चों को बचपन से ही परिवार की मजबूत डोर से बाँध कर रखने में असफल हो रहे हैं?
क्यों माता पिता बच्चों से और बच्चे माता पिता से दूर होते जा रहे हैं?
क्यों आज संयुक्त परिवार तो छोड़िये एकल परिवार भी टूटते जा रहे हैं?
जरा एक पल रुक कर सोचिए तो सही कि यह भौतिकवादी संस्कृति हमें कहाँ लेकर जा रही है?
क्यों हमारे समाज में जहाँ समाज और परिवार एक दूसरे के पूरक थे आज उन दोनों के बिखराव को झूलाघरों एवं वृद्धाश्रमों द्वारा पूरा किया जा रहा है?
शायद इन सभी सवालों के जबाव इन सवालों में ही है।
डॉ नीलम महेंद्र

*डॉ. नीलम महेंद्र

हम स्वयं अपने भाग्य विधाता हैं यह देश हमारा है हम ही इसके भी निर्माता हैं क्यों इंतजार करें किसी और के आने का देश बदलना है तो पहला कदम हमीं को उठाना है समाज में एक सकारात्मकता लाने का उद्देश्य लेखन की प्रेरणा है।राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय समाचार पत्रों तथा बीसियों औनलाइन पोर्टल पर लेखों का प्रकाशन फेसबुक पर " यूँ ही दिल से " नामक पेज व इसी नाम का ब्लॉग, जागरण ब्लॉग द्वारा दो बार बेस्ट ब्लॉगर का अवार्ड