कविता

गांव की औरतें….

गाँव की औरतें….

जितना चाहती हूँ
उस बात को भूल जाना
उतना ही याद आता

गाँव की उन हमउम्र
औरतों का रोना
उनके दर्द उनके आँसू
बार-बार मुझे खुरेदती है
चारदीवारी में कैद उनकी जिंदगी
जानवरों से भी बदत्तर

जहाँ घर के दरबाजे से
बाहर झांकना भी गलती माना जाता
सालों बीत जाते लेकिन
बाजारों का मुँह देखना तक
नसीब नहीं होता
बस जरूरत की वस्तु घर में ही
उपलब्ध करा दी जाती
पसंद नापसन्द से कोई मतलब नहीं

मेहमानों के आगे इतना घुंघट
तानना होता जाती
कि चेहरे की परछाई भी
नज़र आए

और काम के दौरान अगर
सरक जाए पल्लू सर से
तो कहा जाता
माथे पर कील ठुकबा देते है
ताकि अटका रहे तुम्हारा आँचल

ओह! मेरा तो दिमाग खराब हो गया
ये सब बातें सुन-सुनकर
पर क्या करूँ उनके लिए
कुछ समझ नहीं आता

देश दुनियां कहाँ से कहाँ बढ़ रहा
पर गाँवों में औरत के प्रति
लोगों की मानसिकता बहु,बीबी को
पैर की जूती समझना
आज भी नहीं बदली
स्थिति वही की वही।

*बबली सिन्हा

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