कविता

एक अतुकांत कविता – मुक्ति

आदमी भ्रम में जीता है !
ज़िन्दगी भर, मौत तक ।

आदमी की तलाश आनंद है
तलाश मुक्ति की …………!
मुक्ति ही आनंद है।
मगर मुक्ति नहीं मिलती …..
किसी कीमत पर नहीं।

थका हारा इंसान मौत को खोजने लगता है
या कहूँ…………………..
मुक्ति खोजने लगता है ।
खोज आनंद की।
आनंद ही मुक्ति है।

एक कुहासे में उम्र भर अथक तलाश
कुछ रौशनी की ……….
ये लड़ाइयां ज़िन्दगी की नहीं !
नहीं,बिलकुल भी नहीं……
लड़ाई ज़िन्दगी की है ही नहीं…………
लड़ाई रौशनी की है,रौशनी के लिए है।

इंसान बहशी हो जाता है ,जब वो हारना नहीं चाहता।
हारना तो कोई भी नहीं चाहता …….!
मगर हार खुद को मनवा लेती है ।

आदमी दो तरह से हारता है ……..
एक हार जो उसने मान ली है अंतर में कहीं ,मगर बाहर नहीं।
बाहर वो लड़ता ही रहता है । वो क्यों हारे ……….इसलिए ।
मगर लड़ते रहने की ख्वाईश इंसान को बहशी नहीं होने देती।

ये दूसरों की खुशियों पर कब्ज़ा जमाने वाले लोग !
असल में ये बहशी हैं।बहशी दरिंदे ………….
रौशनी के लिए लड़ने वाले नहीं हैं ये ……न ही देने वाले
ये रौशनी छीनने वाले हैं।
इनकी मुक्ति नहीं होती ………
हाँ ,इनकी मुक्ति नहीं होती।
मुक्ति जो की आनंद है ।

— Anshu Pradhan