सामाजिक

छोटी-छोटी चीजों में छुपी है असली खुशी

 

भौतिकवाद की प्रगति ने मानव को सुविधाओं से संपंन कर दिया है। जीवन की जटिलता को काफी हद तक सरलता में परिवर्तित कर दिया है। आधुनिक काल में मानव ने प्रकृति को अपने वश में करने का साहस कर दिखाया है। सबकुछ संभववाद की परिकल्पना के आधार पर शैनेः-शैनेः मानव सिद्ध करता जा रहा है। लेकिन इस बीच महत्वपूर्ण प्रश्न पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। आज सबकुछ मानव के वश में होने के बावजूद भी उसके चेहरे पर खुशी की झलक क्यों नहीं दिखायी पड़ रही है ? क्या भौतिकवाद की अनगिनत उपलब्धियां ही एकमात्र खुशी का पैमाना है ? क्या पैसों और रईसी से खुशी को बाजार में से खरीदा या तौला जा सकता है ? क्या खुशी का अभिप्राय केवल संसाधनों की बढोत्तरी और सुख-सुविधाओं से पूर्ण विलासी जीवन को मान लिया जायें ? दरअसल, खुशी का संबंध अंतर मन की अतल गहराईयों से है। जहां आत्मसंतुष्टि का वास है, शांति की छाया है, धैर्य और सकारात्मकता की धरातल पर मानवीय मूल्यों के प्रति गहनता का भाव विद्यमान है।

सच तो यह है कि आज इंसान जीवन में अधिक पाने की तृष्णा में रात-दिन धन संग्रहण के पीछे व्यर्थ भाग रहा है। पैसों की चकाचैंध और लालच में इंसान अंधा हो चुका है। न तन का ख्याल है और न ही रूह को सुकून, केवल भागम-भाग जारी है। शायद ! वो इस बात से अनभिज्ञ है कि जो कर रहा है उससे सुविधाएं जरुर बढेगी लेकिन खुशी की प्राप्ति नहीं होगी। यह पूर्णतय स्पष्ट है कि खुशी का धन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। खुशी धन से खरीदी नहीं जा सकती। और न ही बेहताशा संसाधनों की खपत करके खुशी को हासिल किया जा सकता है। खुशी के लिए पहली अनिवार्य शर्ते है मन की संतुष्टि। जब मन में संतोष का मकान बनने लगेगा तो खुशी अनायास ही उसमें रहने आयेगी। मन की संतुष्टि के लिए लोभ की वृत्ति पर पाबंदी लगानी होगी। गीता सार के अनुसार न किसी को नसीब से ज्यादा और न ही नसीब से कम प्राप्त होता है। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम पुरुषार्थ और कर्म को गति देना ही बंद कर दें। ध्यान रहे भाग्य उन्हीं का साथ देता है जो अपनी अटूट आस्था कर्म में अनवरत जारी रखते है।

खुशी को ओर भी बेहतर ढंग से समझने के लिए अबोध शिशु के उदाहरण को लेते है। अबोध शिशु के मुख पर 24 घंटे दंतुरित मुस्कान और खुशी की झलक देखने को मिलती है। क्यों ? वो ही मुस्कान वयस्क पुरुष और महिला के मुख पर नजर क्यों नहीं आती ? क्या खुशी का संबंध उम्र से तो नहीं है ? नन्हे-मुन्ने शिशु की बात करे तो उसी जीवन की आगामी कठिनाओं का अंदाजा नहीं है। क्योंकि उसे अब तक खुद का भी होश नहीं है। वह हर ओर की परेशानियों से बेफर्क है। आजाद है और मुस्कुराने में मशगूल। जबकि वयस्क पुरुष या महिला को आने वाली कल की फर्क है। परेशानियों ने उसे चहुंओर से पकड़ रखा है। परेशानियां इसलिए है कि जीवन के मर्म को सही तरीके से समझा नहीं गया। फलतः सच्ची खुशी की कामना में यहां तो जीवन की हकीकत से उसी प्रकार से अनभिज्ञ रहा जायें जैसे दंतुरित शिशु है, यहां फिर जीवन के मर्म को आचरण में ढालकर मुश्किलों को कम किया जायें। इस बीच एक तथ्य यह भी है कि मुश्किलें मानव जीवन के राह की पहली चुनौती है, तो क्या उससे मुंह मोड़ लिया जायें। जिस प्रकार बुद्ध और महावीर ने सांसरिक जगत की कठिनाओं और दुःखों को देखकर वैराग्य की ओर मुंह मोड़ लिया। क्या उसी प्रकार हमें भी वैराग्य की ओर मुंह मोड लेना चाहिए ? सवाल तो यह भी है क्या वैराग्य के बाद बुद्ध और महावीर की मुश्किलें कम हुई या ओर भी अधिक बढी ?

मेरे ख्याल से केवल संयास जीवन की राह पर चलकर ही खुशी का आलिंगन किया जा सकता है। ओर यह मार्ग हर किसी के लिए मुमकिन भी नहीं है। असली खुशी कठिनाओं और दुःखों के पीछे ही सुप्त है। इसलिए कठिनाओं से मुकाबला करना मानव का धर्म होना चाहिए। जीवन लीला को इस कारण पर खत्म करना कि दुःख सीमा पार कर चला गया था बिलकुल ही जायज नहीं है। आज खुशी के लिए हमें कोई बड़ी कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि हमें छोटी-छोटी चीजों में बड़ी-बड़ी खुशी तलाशने की आदत डालने की जरुरत है। यह खुशी हमें दूसरों की मदद कर, असहाय की सहायता कर, गरीब को खाना खिलाकर, रोगियों का उपचार कर, सच बोलकर, ईमानदारी से सिद्धांतवादी जीवनयापन कर इत्यादि कामों से मिल सकती है। चलते-चलते, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम हैं !

देवेन्द्रराज सुथार

देवेन्द्रराज सुथार , अध्ययन -कला संकाय में द्वितीय वर्ष, रचनाएं - विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड - 343025 मोबाईल नंबर - 8101777196 ईमेल - devendrakavi1@gmail.com