भाषा-साहित्य

भारतीय लिपियों का मिश्रित विकास

आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, जहाँ विश्व एक बिंदू में सिमट गया है। इस बिंदू के आसपास या उसके गर्भ में भी प्रोट्रान का या न्यूट्रान का भी क्यों न विकास हो वह सभी प्रगतिशील व चेतन्य समाज, देश, भूभाग को ज्ञात हो जाता है और उत्तरोŸार उसमें विज्ञान अपना योगदान देती है और उसे और भी विकसित करती है। भाषा , लिपि की भी विकासशील सभ्यता में यही स्थिति है। विज्ञान प्रमाण मांगती है जबकि कि वंदतियों व धार्मिक विश्वासों को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। सिंधु घाटी सभ्यता कितनी भी विकसित मानी जाती रही है अपने गर्भ में वे प्रमाण नहीं दे सकी कि भारतीय भाषा संस्कृत, देवनागरी या आज की प्रचलित भाषाएँ व लिपि से अपना अस्तित्व दिखा सके। ईसापूर्व 1500 से 400 ई.पूर्व तक का सफर भारतीय भाषा या लिपि ने अपने अंधकारमय कूएँ में समेट दिया है। उत्खनन् इसके प्रमाण है। ऐसा नहीं है कि उस काल में उससे पूर्व हमारे पूर्वज ईशारों की बोली भी नहीं जानते होंगे। बस है नहीं तो उसका प्रमाण ईसा पूर्व 400 के साथ ब्राह्मी लिपि के प्रमाण भारतीय परिवेश में मिलते हैं। इसे क्रांति युग माना जाता है, जहाँ दो राजा महावीर तीर्थंकर व महात्मा बुद्ध ने एकेश्वरवाद को महत्व दिया।आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, जहाँ विश्व एक बिंदू में सिमट गया है। इस बिंदू के आसपास या उसके गर्भ में भी प्रोट्रान का या न्यूट्रान का भी क्यों न विकास हो वह सभी प्रगतिशील व चेतन्य समाज, देश, भूभाग को ज्ञात हो जाता है और उत्तरोŸार उसमें विज्ञान अपना योगदान देती है और उसे और भी विकसित करती है। भाषा , लिपि की भी विकासशील सभ्यता में यही स्थिति है। विज्ञान प्रमाण मांगती है जबकि कि वंदतियों व धार्मिक विश्वासों को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। सिंधु घाटी सभ्यता कितनी भी विकसित मानी जाती रही है अपने गर्भ में वे प्रमाण नहीं दे सकी कि भारतीय भाषा संस्कृत, देवनागरी या आज की प्रचलित भाषाएँ व लिपि से अपना अस्तित्व दिखा सके। ईसापूर्व 1500 से 400 ई.पूर्व तक का सफर भारतीय भाषा या लिपि ने अपने अंधकारमय कूएँ में समेट दिया है। उत्खनन् इसके प्रमाण है। ऐसा नहीं है कि उस काल में उससे पूर्व हमारे पूर्वज ईशारों की बोली भी नहीं जानते होंगे। बस है नहीं तो उसका प्रमाण ईसा पूर्व 400 के साथ ब्राह्मी लिपि के प्रमाण भारतीय परिवेश में मिलते हैं। इसे क्रांति युग माना जाता है, जहाँ दो राजा महावीर तीर्थंकर व महात्मा बुद्ध ने एकेश्वरवाद को महत्व दिया। संसार में कोई भी लिपि ऐसी नहीं है जिसमें दूसरी लिपि का सम्मिश्रण न हो। ब्राह्मी लिपि, सिंधु घाटी के अंतकाल में चित्रात्मक व भावात्मक लिपि से वर्णात्मक बन चुकी विकसित लिपि ही है, जो फिनिशियन (उत्तरी सेमिटिक) तथा सिंधु घाटी लिपि व आरमायक लिपि द्वारा विकसित हुयी है। मौर्यवंश (ई.पू. 345 से ई.पू. 180 तक) शुंग वंश (ई.पू. 180 से ई.पू. 78 तक), काव्य वंश ( ई.पू. 68 से ई.पू. 27 तक), सातवाहन (दक्षिण से) ( ई.पू. 27 से 227 ईसवी तक), शक वंश (ई.पू. 15 से), पल्लव वंश, कुषाण वंश (165 ई.पू. से 102 ईसवी तक), गुप्त वंश (325 ई. से 570 ई. तक), मौत्रक वंश (556 ई.सन से 567 ई. सन तक), गुर्जर वंश से राजपूत वंश, प्रतिहार वंश, गहड़वाल वंश, चैहान वंश, पाल वंश, सेन वंश, कलचूरी वंश, चन्देल वंश, परमार वंश, सोलंकी वंश आदि उत्तर के तथा विष्णु कुण्डी वंश, वाकाटक वंश, पल्लव वंश, चालुक्य वंश, राष्ट्रकूट वंश, चोल वंश, पाण्डपवंश, गंग वंश, आदि दक्षिण के काल में उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्रह्मी लिपि के रूप में विकसित हुई है। (1) ब्राह्मी लिपि फिनीशियन, अरमायक तथा मोआब सेमिटिक वंश की लिपि है, जो दायें से बाँये लिखिी जाती थी, भारत में इन्हीं कि दिशा परिवर्तित की गई। सिंधु घाटी लिपि के 417 चिह्न में से कुछ ब्राह्मी के अक्षरों के समान प्रतीत होते हैं, ध्वनियों का रहस्यपूर्ण रूप सर्वमान्य नहीं हुआ।
(2) खरोष्ठी लिपि ईसा पूर्व छठी शताब्दी के आधुनिक अफगानिस्तान व पाकिस्तान में बैक्ट्रिया, सीथिया, पर्शिया, भारत आदि के निवासी, निवास करते थे। यहाँ व्यापारियों को कीलाकार लिपि के प्रयोगों में कठिनाई होती थी, इसलिए अरमायक लिपि का प्रयोग किया जो कालांतर में अपना प्रभाव डाल भिन्न-भिन्न लिपियों की जन्मदायी बनी। अरमायक के एक शब्द ‘खरोष्ठ’ से इसका नाम खरोष्ठी पड़ा, और भी कई मत है। कर्नल जेम्स टाॅड ने बैक्ट्रिया, ग्रीक, शक, पार्शिया व कुषाण वंशीय राजाओं के कई सिक्कों व अभिलेखों का संग्रह किया। कई सिक्कों पर एक ओर ग्रीक लिपि थी, दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि अंकित थी। इस लिपि का ब्राह्मी अक्षरों से कोई संबंध नहीं है। (3) प्राचीन ब्राह्मी दूसरी शताब्दी में इसका स्थान ईरान की पहली लिपि ने ले लिया। अजमेर के बड़ली ग्राम से एक आंशिक लेख जो एक स्तंभ के टुकड़ो पर अंकित उसमें अंकित शब्द है ‘वीर (।) य भगव (त), दूसरी पंक्ति में चतुर। सिति व (स)। जो महावीर के निर्वाण का चैरासिवाँ वर्ष होना चाहिये, जो गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा की पुस्तक ‘‘भारतीय प्राचीन लिपिमाला’’ के अनुसार ई. पू. 443 वर्ष होता है।
(4) उत्तरी ब्राह्मी जूनागढ़ (गुजरात) में गिरनार के रास्ते एक बड़ी चट्टान भूमितल के 12 फीट ऊँची व 75 फुट परिधि की शिला पर सम्राट अशोक ने 257 ई. पू. अपनी 14 घोषणाएँ ब्राह्मीलिपि में अंकित करवाई जिसके पीछे क्षत्रप वंशी राजा रूद्रदामन (130 से 170 ईसवीं तक) ने संस्कृत भाषा में अभिलेख अंकित करवाये। यह अभिलेख संस्कृत भाषा का सबसे प्राचीनतम लेख है। जबकि वैदिक साहित्य में 64 वर्ण थे और शिलालेख जो प्राकृत में अंकित है इसमें 47 अक्षर व्यवहार में थे।  (अ) उत्तरी ब्राह्मी क्षत्रप लिपि: 130 ईसवीं से 170 ईसवी वंश क्षत्रप (ब) उत्तरी ब्राह्मी कुषाण लिपि: कांकली टीला पर उत्थान, कुषाण वंशी राजा कनिष्क द्वारा (स) उत्तरी ब्राह्मी गुप्त लिपि: 335 से 414 ईसवी समुद्र गुप्त द्वारा ब्राम्हण धर्म व साहित्य का उत्थान हुआ, गुप्त कालीन होने के कारण गुप्त लिपि
(5) दक्षिण ब्राह्मी  बुद्ध भगवान का एक स्मारक-स्तूप ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में निर्मित हुआ जिस पर भाषा पाली व संस्कृत थी। दूसरी शताब्दी में ताम्रदान पत्र नासिक की गुफा नं. 003 की दीवार पर सातवाहन राजा बशिष्ठी पुत्र पुलमायी द्वितीय द्वारा उत्कीर्ण मिला। तीसरी शताब्दी में इक्षवाकु (उत्तर भारत की आर्य जाति बाद में चालुक्य वंश के नाम से प्रसिद्ध) एक स्तुप से तीन अभिलेख जग गयापेट (कृष्ण जनपद) चैथी शताब्दी पल्लव वंश द्वारा अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख पाँचवीं शताब्दी वाकाट वंश जिसमें भूमि दान का उल्लेख है जो प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा में है।
(6) कुटिल लिपि (6वीं से 9वीं शताब्दी) हर्षवर्धन 605 ईसवी मालवा नेरश मौखरी व कन्नौज का भी राजा बना। वलभी के राजा को भी अधीन किया। कुशल शासक, धार्मिक सहिष्णुता भी इसमें थी। शैव, वैष्णव, बौद्ध आदि धर्मों को आश्रय दिया। हयान सांग चीनी यात्री इसी हर्ष के काल में आया। सतवीं शताब्दी में मेवाड के राजा अपराजित के समय अभिलेख पाये गये। विकटाक्षरणि अंकित था। इस लिपि के अक्षर कुटिल व विकट थे इसलिये इस लिपि को कुटिल लिपि कहा गया।
(7) तामिल लिपि विद्वानों का मत है यह ब्राह्मी से भी पहले दक्षिण में प्रचलित थी। ब्राह्मी लिपि के प्रभाव में इसमें परिवर्तन आ गया। इसमें 12 स्वर व 18 व्यंजन होते हैं। इसमें चार चिह्न ऐसे हैं जो दो-दो चिह्नों का काम करते हैं जैसे क-ग, ट-ड, त-द, प-ब। संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करने के लिए इस लिपि में ज, स, ष, ह, क्ष जोड़ दिये। इस काल में नरसिंह वर्मन ने महामल्लपुरम नगर बसाया। चोल राजाओं के इस पल्लव वंश का अंत किया।
(8) वट्टेलुत्तु लिपि सातवीं अशताब्दी में दो शाखाओं का उद्भव दक्षिणी ब्राह्मी लिपि से हुआ – (अ) चेर – पाण्डय लिपि – जो वट्टेलत्तु लिपि से जानी गयी यह हस्त लिखित थी। (ब) पल्लव – चोला लिपि – जो कोले लुत्तु के नाम से जानी गयी – यह ताड़पत्रों पर     सीधे लिखने से फटने के भय से गोलाकार बनाकर लिखा करते थे। वट्टेलुत्तु पढ़ने में कठिनाई होती थी तो महाराज राजराज ने वट्टेलुत्तु को समाप्त कर कोलेकुत्तु को प्रयोगात्मक बानाया जो 18 वीं शताब्दी तक चलती रही।
(9) ग्रंथ लिपि छटवीं शताब्दी में ब्राम्हण संस्कृत में ग्रंथों के लिखना चाहते थे पर तामिल लिपि में संस्कृत भाषा के उच्चारणार्थ वर्ण नहीं थे इसलिये इसे ग्रंथ लिपि कहा गया।
(10) पश्चिमी लिपि छठी शताब्दी में गुप्तवंश के पतन के कारण प्रांतपति शनेंः शनेः स्वतंत्र होने लगे। दो शाखाएँ बनी (अ) कठियावाद: नरेश द्रोण 506 से 525 ईसवीं (ब) पश्चिमी मालवा – नरेश शिला दित्य इस लिपि में दो ताम्र दान पत्र जिसमें 36 पंक्तियाँ उत्कीर्ण थी, यह ध्रुवसेन द्वितीय ने ईसवीं 539 से 567 में उत्कीर्ण करवाया।
(11) कन्नड़ लिपि कदम्ब वृक्ष को पूजने वाले ब्राम्हण ने कदम्ब वंश की नींव डाली। इस लिपि का विकास चालुक्य राजाओं द्वारा सातवीं शताब्दी में हुआ। बारहवीं शताब्दी तक कन्नड़ व तेलगु भाषा का प्रयोग इस लिपि में हुआ जो तेरहवीं शताब्दी से पृथक हो गया।
(12) तेलगु लिपि पहले कन्नड़ लिपि का ही प्रयोग हुआ। 11वीं शताब्दी से पृथक होते होते 13वीं शताब्दी में पृथक लिपि हुआ जिसका विकास दक्षिणी ब्राह्मी द्वारा हुआ।
(13) बंगला लिपि सामन्त सेन मूलरूप से मैसूर कर्नाटक के मूल निवासी थे। वे जन्म से ब्राम्हण व कर्म से क्षत्रिय थे, सेन वंश था। ई. 1095 से 1158 तक इन्होंने व पुत्र हेमंत तथा विजयसेन ने राज्य का विस्तार कामरूप, तिरहुत, कलिंग तक किया। शैव धर्म के अनुयायी थे। कामरूप की बंगला लिपि पौराणिक काल पूर्वकाल (300 से 1300 ईसवीं) अहोन काल (1300 से 1800 ईसवीं), आधुनिक काल (1826 से अब तक) पुण्यवर्णन, मलेच्छों व सेन वंश में प्रसार हुआ। यह लिपि 1100वीं शताब्दी में देवनागरी लिपि में विकसित हुयी।
(14) उड़िया लिपि चोल सम्राट से वज्रहस्त पंचम ने स्वतंत्र किया (1038-1060 ईसवीं) अनन्त वर्मन (गंगवंश) ने जगन्नाथ पुरी मंदिर का निर्माण किया। इस पर तेलगु व संस्कृति का प्रभाव था जो गंगा से कावेरी तक पंद्रहवी शताब्दी में कपिलेन्द्र वंश तक चला जिसे मुगलों ने परास्त किया।
(15) शारदा लिपि कश्मीर की देवी शारदा के नाम पर ब्राह्मी से कुटिल लिपि द्वारा उद्भव हुआ जिसका 10वीं शताब्दी में चम्बा, कश्मीर , पंजाब में चलन रहा जिसे अब देवनागरी व उर्दू ने ले लिया।
(16) मौड़ी लिपि शिवाजी के शासनकाल में बीजापुर किले को आधीन किया गया। इस काल में अक्षरों को मोड़कर लिखा जाता है इसलिए इसे मौड़ी लिपि कहते हैं।
(17) उत्तर-पूर्व मध्यकालीन लिपियाँ(अ) मैथिल ः मिथिला के ब्राम्हणों द्वारा जो 15वीं शताब्दी में देवनागरी द्वारा      विकसित हुई (ब) तिरहुतिया ः 16वीं शताब्दी के बिहार के चम्पारण, दरभंगा, मुजफ्फरपुर में विकसित   हुई।  (स) भोजपुरी ः 15वीं शताब्दी में बिहार के चम्पारण व सारण जिले में। (ड) मागधी ः मगधी भी कहते है। गया व पटना जिलों में विकसित हुयी। (क) कैथी ः कायस्थों द्वारा 15वीं शताब्दी में दिखी जिसमें शिरोरेखा नहीं होती। (ख) अहोम ः थाई जाती कि उपजाति 1228 में असम पर आक्रमण कर वहीं बस  गयी। 1645 में हिंदु धर्म की दीक्षा ली। अठारवीं शताब्दी में ब्राम्हणों    ने इस जाति को परासत किया। जिन्हें 1824 में अँग्रेज़ो ने परास्त  किया। इस लिपि का 14वीं शताब्दी में अविष्कार हुआ और 1920 में  लोप हो गयी। (ग) खाम्बी ः थाई की उपजाति अहोम के साथ आकर भारत में बसे। 15वीं  शताब्दी में लिपि बनाई, 16वीं शताब्दी में देवनागरी में विकास हुआ,  बीसवीं सदी के चैथे दशक में लोप हो गयी। (घ) मेई-थेई लिपि: मणिपुर जिसका इतिहास 1714 में ज्ञात हुआ। इसे 1925 में ब्रह्मा  ने जीत लिया बाद में इनपर अँग्रेज़ों का शासन था जिसे 1948 में भारत ने जीत लिया। प्राचीन में मणिुपर को मेई-थेई  कहते थे। भाषा कुकीचिन (बंगला व बर्मी) थी, इसका अर्थ है पहाड़ी जातियाँ। यहाँ सारा व्यापार स्त्रियाँ करती थी। ये स्वयं को अर्जुन के वंशज मानते थें इसका विकास बंगला द्वारा 1700 ईसवीं में हुआ।
(18) उत्तर-पश्चिम के मध्य कालीन लिपियाँ(अ) उर्दू – इसे लश्करी जुबान याने सेना की भाषा, तुर्की में उूर्द का अर्थ है सैनिक पड़ाव। यह अरबी-फ़ारसी भारतीय भाषा के मिश्रण से जन्म हुआ। 14 वीं शताब्दी में अरबी के 28 अक्षर, फ़ारसी के 4 अक्षर (पे, चे, झाल, गाफ) जोड़े, 5 चिह्न जोड़ 37 शब्द उर्दू लिपि में बने। काश्मीर से उत्तरप्रदेश तक की भाषा है।
(ब) अरबी सिन्धी लिपि – आठवीं शताब्दी में सिंध के निवासियों द्वारा अरबी का प्रयोगात्मक बना, लिपि का नाम अरबी-सिंधु पड़ा जो बीसवीं शताब्दी में पृथक हो गयी। अरबी के 28 चिह्न के साथ 24 चिह्न का अविष्कार कर 52 चिह्न हो गये।
(स) बनियाकार लिपि – सिंध के महाजन व्यापारी ने लेखा-जोखा गुप्त रखने के लिए अविष्कार किया। इस लिपि के भी शिरोरेखा का प्रयोग नहीं होता था। यह 30 अक्षर की भाषा है जो 17 वीं शताब्दी में दिखी।
(ड) हिंदी सिंधी लिपि – ब्राम्हणों ने अरबी से अलग रखने के लिए इस लिपि का विकास किया। 15वीं शताब्दी में विकास हुआ।
(क) टाकरी लिपि – यह शारदा लिपि का घसीट रूप है, टाकरी शब्द (ठाकुर) भगवान से बना है, इसका प्रयोग कश्मीर से डोंगरों द्वारा चम्बा व हिमाचल भूभाग में था।
(ख) लाण्डा लिपि – 15 वीं श्ताब्दी में अपभ्रंश प्राकृत भाषा वृच्छा से हुआ। 1868 में इसमें संशोधन हुआ इसे जाटकी (जाटों की), हिंदु की (हिंदुओं की)। इसका प्रयोग सिंध, मुल्तान व सारे पंजाब में हुआ।
(ग) गुरुमुखी  लिपि – गुरुमुख से निकली भाषा, उपनाम पंजाबी इसे धर्मगुरु श्री अंगद जी ने इसका अविष्कार किया। शारदा व लाण्डा लिपि के वर्णों द्वारा इसका अविष्कार हुआ। 16 वीं शताब्दी में मुसलमान आये तो फारसी भाषा की ध्वनियाँ लायें। गुरुमुखी ने नीचे नुक्ता लगाकर इसका उच्चारण कर लिया जो उर्दू व फ़ारसी की तरह ही पंजाबी में भी संयुक्त वर्ण नहीं होते।
(19) आधुनिक लिपियाँ(अ) मलयालम लिपि – ग्रंथ लिपि का घसीट रूप है, दसवीं शताब्दी में केरल प्रांत (ब) तुळु लिपि – इसका उद्भव मलयालम लिपि से प्रयोग कन्नड़ प्रांत के कुर्म में हुआ, बाद में कन्नड़ लिपि बनी।(स) उड़िया लिपि – इसका उद्भव देवनागरी व बंगला द्वारा हुआ, प्रांत उड़ीसा।(ड) गुजराती – 17 वीं शताब्दी के देवनागरी से इस लिपि का विकास हुआ। इसमें भी शिरो रेखा नहीं होती।
(20) देवनागरी लिपि इसका जन्म भारत के दक्षिण में हुआ। इसका विकास उत्तर में गुप्त लिपि व कुटिल लिपि द्वारा हुआ। यह महाराष्ट्र से बिहार तक फैलाव लिये हुए है। यह आठवीं शताब्दी में राजा दन्ति दुर्ग द्वितीय (747 से 753 ईसवी) दक्षिण राज्य में तीन ताम्रदान पत्रों पर अंकित है। समनगढ़ के पहाड़ी दर्ग वेलगांव से 40 कि.मी. दूर कोल्हापुर। पहले इसका नाम नन्दी नागरी था, जो यह नगर बैंगलूर से 58 कि.मी. उत्तर में था। दसवीं शताब्दी में और फैलाव लिये 12 वीं शताब्दी में विकसित हुयी, इस शताब्दी में शिरोरेखा का प्रयोग होने लगा। इसमें स्वर बढ़ गये। यह 15वीं शताब्दी में पूर्ण विकसित हुयी। इसे कल्पित नाम गुजरात के नागर ब्राम्हणों (देव) के कारण देवनागरी कहलाई। इसमें जो लिखा वही पढ़ा जाता है, वर्ण मूक नहीं होते, एक चिह्न एक ध्वनी देता है। भारत ही नहीं विश्व की सभी भाषाओं को व्यक्त करने का इसमें साहस है वहीं निरर्थक शब्द शिरोरेखा से जटिल तथा गतिरोधक है, अक्षर अधिक जगह घेरते हैं आदि देवनागरी में सरलता की ओर कई संशोधन व प्रयोग हो रहे हैं। इससे लिपि का भविष्य सुधरेगा पर भूत बिगड़ेगा और इसके प्रसार से कई लिपियाँ अपना अस्तित्व भूल काल बन रही है, बन जायेगी। मानव जाति जिज्ञासु, परिवर्तनशील व सरलता की ओर अग्रसर रहती है, भविष्य में हो सकता है नयी भाषा या लिपि का उद्भव हो, परंतु प्रमाण प्रापत हुये लिपियों को नकारा नहीं जा सकता और साथ में इस सत्य को आज स्वीकार करना होगा। भारतीय भाषाओं का विस्तार व विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ। भाषा कोई भी हो लिपि प्रमाण बनती है।

— नरेन्द्र परिहार

नरेन्द्र परिहार

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