लघुकथा

रोजगार

शहर के बस अड्डे के समीप ही झुग्गियों में से एक झुग्गी में लाली और उसके कुछ साथी तीन पत्ती की बाजी खेल रहे थे । कुल चार मित्र खेल रहे थे और बाकी कई उन्हें चारों तरफ से घेरे उनकी हर चाल को देख और समझ रहे थे ।
 लालमन उर्फ लाली स्नातक होकर भी बेरोजगार था सो झुग्गियों में आकर अपने मित्रों संग तीन पत्ती नामक ताश का खेल खेलकर समय भी व्यतीत कर लेता और चूंकि वह काफी होशियार भी था सो थोड़ी बहुत कमाई भी कर लेता । लेकिन आज जैसे उसका भाग्य उससे रूठ गया हो उसे एक बार भी ढंग की पत्ती नहीं मिली और वह एक एक कर सभी बाजी हारने लगा । धीरे धीरे उसके पास के सभी पैसे खत्म हो गए ।
पत्ते बंट चुके थे । सभी खिलाड़ियों ने अपना अपना दांव लगा दिया था लेकिन लाली के पास दांव पर लगाने के लिए पैसे नहीं थे । बाद में देने की बात कहकर लाली ने जैसे ही पत्ते की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा सोहन गुर्रा उठा ” लाली ! रोकड़े हैं तो पत्तों को हाथ लगा वर्ना फूट ले यहां से कंगले ! जुए में उधारी नहीं चलती । क्या तुझे इतना भी नहीं पता ? “
 लाली भी तैश में आ चुका था ” तुम लोग दस मिनट रुको ! मैं अभी यूं गया औऱ यूं आया “
 अगले कुछ ही पलों में वह काम पर जाने के लिए तैयार हो गया था । साड़ी और ब्लाउज पहन कर वह अब वह वाकई  ‘ लाली ‘ बन गया था । बाहर जाते उसके कदमों की आहट के साथ उसके साथियों को उसके जोरदार तालियों की आवाज भी साफ सुनाई पड़ रही थी ।
 लगभग पंद्रह मिनट बाद ही लाली वापस लौट आया और ताश की बाजी एक बार फिर शुरू हो गयी । अब लाली के पास पर्याप्त पैसे जो आ गए थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।