भाषा-साहित्य

भाषाई और सांस्कृतिक संकट की विषम स्थितियां

देश में भाषा का अनुत्तरित सवाल पिछले 70 सालों से उत्तर की प्रतीक्षा में अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है । इसी तरह भाषाई संकट से उपजा सांस्कृतिक संकट भी निरंतर गहराता जा रहा है। भारतीय समाज का पढ़ा-लिखा तबका अब भाषा व संस्कृति से ज्यादा तरजीह भावना पर देने लगा है। बड़े षहरों में, वह किसी प्रान्त का हो अंगे्रजों या हिंग्रेजी में बात करने में खुद को गौरवन्वित समझता है। इसी तरह विदेशी अपसांस्कृतिक तत्त्वों को भी अपनाने में उसे गुरेज नहीं। उसे लगता है, अब जब कि दुनिया ग्लोबल बन गई है, ऐसे में भाषा और संस्कृति कहीं की भी हो, कैसी भी हो, बोलने और अपनाने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। हां, आप की भावना क्या है वह बोलते वक्त प्रकट होनी चाहिए। यानी हिंदी के नाम हिंग्रेजी या हिंग्लिश बोलिए या अंगे्रजी या आंचलिक बोली के साथ अंगे्रजी का मिश्रण, सब ठीक है। विदेशी संस्कृति के रंग-ढंग से रहना उसे कहीं ज्यादा ‘माडर्न’ बनाता है। यदि सरसरी नजर से देखा जाए तो बात कुछ ठीक भी लगती है। आम आदमी से लेकर खास आदमी जिसमें षासक वर्ग, प्रशासक वर्ग, व्यापारी-उद्योगपति और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर तक की भाषा-संस्कृति का मापदंड लगभग यही है। सहज, सरल हिंदी या भारतीय भाषा बोलने की न तो लोगों की आदत है और न तो इसमें वह गौरव ही महसूस करता है। इसी तरह भारतीय संस्कृति के मामले में भी है।
दरअसल, विदेशीपन का आकर्षण भारतीयों में वर्षों से रहा है। आज अंगे्रजी आजादी के 70 साल बाद भी तेजी से आगे क्यों बढ़ रही है, जब कि भारतीय भाषाओं का दम अंगे्रजी के सिर पर सवार होने के कारण लगातार घुटता रहा है? संविधान में गुंथी 18 भाषाओं का मामला हो या उन आंचलिक बोली-भाषाओं का जिनका जन्म और पालन-पोषण इसी धरती पर हुआ, सभी के जीने के अधिकार अंगे्रजी छीन रही है या कहें हम अंगे्रजी और अंगे्रजियत को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।
केंद्र ने हिंदी को राज भाषा होने के कारण महत्व दिया। लेकिन अंगे्रजी न तो राजभाषा है, न राष्ट्र भाषा है फिर इसके प्रति ऐसा व्यामोह किस लिए? मौजूदा एनडीए सरकार जिस स्वदेशी, संस्कृति, स्वाभिमान, सादगी और स्वावलम्बन की बात कर रही है उसमें क्या भारतीय भाषाओं को उनके स्वाभिमान की रक्षा, उन्हें बढ़ावा देने की ईमानदार पहल नहीं आती? आज षहर ही नहीं गांवों का पढ़ा-लिखा वर्ग अपनी मातृभाषा या हिंदी बोलने के बजाए अंगे्रजी या हिंग्रेजी बोलने में अधिक गर्व महसूस करता है। उसे पिज्जा, मेकडोलन और कोक-पेप्सी अधिक आकर्षित करते हैं? वह ऐसा करके यह दिखाना चाहता है कि हम भी नए जमाने के साथ बहुत आगे निकल चुके हैं। हम कोई अनपढ़ गवांर आदमी नहीं कि जो अपनी माटी से ही खेले और चिपके रहें।
बार-बार एक सवाल कभी हिंदी को लेकर तो कभी आंचलिक बोलियों-भाषाओं को लेकर दुहराया जाता रहा है कि भाषा का सवालों के जवाब किससे मांगा जाए- षासक , प्रशासन या उनसे जो भाषा के सवाल को कोई सवाल ही नहीं मानते, लेकिन षासन में उनकी सीधी दखल है। तकरीबन हर हिंदी दिवस या विश्व हिंदी दिवस पर यह सवाल मौजूं हो जाता है।
भाषा का सवाल केंद्र के ही पाले में है। सर्वोच्च न्यायालय इसे हल नहीं कर सकता और न वह हल ही करना चाहता है। क्योंकि देश के तकरीबन सभी उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में सारा कामकाज और बहस अंगे्रजी में होती है और फैसला भी अंगे्रजी में लिखा जाता है। यानी न्यायालय का स्वभाव और आदत भी अंगे्रजीपरक है। ऐसे में न्यायपालिका से न्याय की गुहार लगाना बेईमानी ही होगी। इसी तरह संस्कृति से ताल्लुक रखने वाली बातों को लेकर बहस-मुबाहिसें चलती रही हैं। आज तक कोई निर्णय नहीं हो पाया कि भारतीयों का पहनावा क्या है और भारतीय का सांस्कृतिक पहचान क्या है।
अब जब कि केंद्र में एनडीए की सरकार है। इसे अपने कर्तव्य और अधिकार की याद दिलाई जा सकती है। और यह सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर हिंदी और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का सिलसिला चलता रहेगा या इसे खत्म किया जाएगा?, जाहिरतौर पर कुछ मंत्रालयों को छोड़कर अब भी सारा कामकाज विदेशी भाषा में ही किया जा रहा है। यहां तक कि सूचना प्रसारण मंत्रालय का ज्यादातर कार्य विदेशी भाषा में होता देखा जा सकता है।
हम हर हिंदी दिवस के मौके पर बड़े कारूणिक स्वर में हिंदी की दुर्दशा का रोना रोते हैं और यह मानते हैं कि हिंदी की इस दुर्दशा का कारण हिंदी वाले ही हैं। फिर जब हिंदी वाले ही हिंदी का दीप के लौ का तेज नहीं होने देना चाहते, तो अंगे्रजी के साम्राज्य को बढ़ते जाने और उसके वर्चस्व को लेकर हो-हल्ला क्यों मचाते हैं? जब हम भारतीयों को अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति लगाव और गर्व खत्म हो गया है तो विदेशी भाषा या गुलामी की भाषा के बढ़ती षक्ति के प्रति दुराग्रह क्यों? यानी न अपनी बढ़ाएंगे और न उसे बढ़ने देंगे?
कौन आज चाहता है कि मातृभाषा में उनकी संतान शिक्षा हासिल करे? कौन चाहता है कि सारा कार्य मातृभाषा में ही करके एक मिसाल पेश करे-मातृभाषा में भी कठिन सा कठिन कार्य किया जा सकता है। इस सच को जानते हुए कि मातृभाषा से बच्चे के मस्तिष्क का विकास संतुलित तरीके से होता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने से उनका दायां और बायां दोनों मस्तिष्क विकसित होता है। लेकिन यदि उनकी मातृभाषा में शिक्षा न हुई तो उनकी सीखने और याद करने की क्षमता पर जबर्दस्त प्रतिकूल असर पड़ता है। लाखों साल पहले भारतीय वैज्ञानिकों(ऋषि-मुनि) ने इस बात को अपने गहन अनुसंधान के बल पर यह समझा दिया था कि बच्चों का स्वर्णिम भविष्य उनकी मातृभाषा में ही सुरक्षित है। वेदों में मातृभाषा का पुरजोर समर्थन किया गया है। उत्तम संतान के निर्माण के लिए मातृभाषा में शिक्षा दिये जाने की महती आवश्यकता बताते हुये महान समाज सुधारक और दार्शनिक महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है-माता बच्चे की पहली पाठशाला होती है। इस लिए माँ की जो भाषा हो संतान को, उसी में शिक्षा दिलाने से, वह हर तरह से उत्तम बनती है।’’
अब जब कि अंगे्रजी लोगों के घरों में सेधमारी कर चुकी है। जहां कभी मातृभाषाओं का एक छत्र राज्य था वहां माता-पिता अपनी संतान से अंगे्रजी में बात करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है अंगे्रजी सीखना बच्चे के लिए अधिक फायदेमंद है। ऐसे माता-पिताओं को कौन समझाए कि भाषा के साथ उसकी संस्कृति भी आती है। अंगे्रजी बोल-पढ़कर यह सोचो की भारतीय बने रहोगे,संभव नहीं। मैकाले की दूरदर्शी नजर आज ऐसे परिवारों में चरितार्थ दिख रही है कि भारत भले ही आजाद हो जाए लेकिन भारतीय अंगे्रजी के व्यामोह से छूट नहीं पाएंगे। वे रंग से भले भारतीय दिखें लेकिन विचारों से पूरी तरह काले अंगे्रज होंगे।
हम अंगे्रजी के साथ अपना कितना कुछ खो रहे हैं, इस सबसे जरूरी विषय पर कभी विचार नहीं किया गया। अंगे्रजी माध्यम के पब्लिक व कांवेन्ट स्कूलों-कालेजों में एक शब्द भी हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं के बोलने पर जुर्माना लगाने का एक चलन भारत में वर्षों से चलता आ रहा है। किससे पूछे कि ऐसे अंगे्रजी परस्त स्कूलों के साथ क्यों षक्ती नहीं बरती जाती? ऐसा भारत में ही क्यों होता है? जो भारत की राजभाषा है। जिससे भारत की पहचान, मान और सम्मान है, उसे बोलने पर इतना बड़ा प्रतिबंध?
भारत की ज्यादा भाषा-बोलियों की हालात दयनीय है। मैं पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, मगधी, तमिल, तेलगु, कश्मीरी, हिमांचली, छत्तीसगढ़ी या डोगरी हर भाषा-बोली पर एक आसंन संकट मडराता देख रहा है। जब भी मैं गांव जाता हूं तब यह देखकर हैरान रह जाता हूं कि गरीब से गरीब घर के लड़के-लड़कियां अंगे्रजी माध्यम से पढ़ रहे हैं भले ही वे पढ़ने में फिसड्डी हों, अंगे्रजी में हर बार फेल होते हों, लेकिन दूसरे बच्चों का अंधानुकरण इतनी तेजी के साथ बढ़ गया है कि बच्चे को उसकी जरूरत के बिना उसे अंगे्रजी पढ़ने के लिए उस पर दबाव बनाया जा रहा है। इस दबाव से बच्चा न तो अपनी मातृभाषा व स्थानीय भाषा सीख पा रहा है और न ही वह अंगे्रजी में ही दक्ष हो पा रहा है। बस, एक होड़ लगी है, दिखावा किया जा रहा है। फलां का बच्चा भी अंगे्रजी माध्यम से पढ़ता है यानी वह भी इस तथाकथित विकास की धारा का हिस्सा बन गया है। मां-बाप बड़े गर्व से बताते हैं-मेरा बेटी या बेटा अंगे्रजी माध्यम से पढ़ते हैं। पूछिए, क्यों अंगे्रजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं तो तपाक से बोलेंगे-अंगे्रजी का जमाना है। सारे गांव के बच्चें जब अंगे्रजी में पढ़ रहे हैं तो मेरा बच्चा अंगे्रजी माध्यम से पढ़ने से क्यों चूक जाए।
उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली अवधी, भोजपुरी, कौरवी और बुंदेलखंडी की हालत अत्यंत नाजुक है। जिस अवधी में रामचरित मानस, पदमावत और अन्य कालजयी और ऐतिहासिक गं्रथों की रचना हुई। जिसने दुनियाभर में अपनी एक अलग पहचान और सम्मान अर्जित किया उसी अवधी के क्षेत्र वाले जब दिल्ली, मुम्बई या दूसरे षहरों में जाते हैं तो अपनी इस विरासत को भूल जाते हैं। वे भी अंगे्रजी या उस षहर की भाषा में ऐसे रम जाते हैं कि अपनी माटी की सुगंध तक वे भूल जाते हैं। इसी तरह की हालात बघेली, भोजपुरी, मगधी और छत्तीसगढ़ी की है। बच्चें अपनी बोली-भाषा के विरासत से पूरी तरह अपरचित। उनसे पूछिए, कौन सी भाषा-बोली वाले क्षेत्र से आए हो तो उन्हें कुछ पता ही नहीं। यह है अंगे्रजी अपनाने का परिणाम। हम अपने आप से ऐसे कटते रहें, तो आने वाली दो-चार पीढ़ियों को यह भी पता नहीं होगा कि लोक-भाषा, लोक-संस्कृति, लोक-कला और लोकरंग जैसी कोई विरासत

उनके उस क्षेत्र की पहचान हुआ करती थी भी की नहीं। जिस क्षेत्र से उनके दादे-परदादे ताल्लुक रखते थे उस इलाके की भाषा-बोली और संस्कृति क्या है? यह सांस्कृतिक और भाषाई संकट सारे भारतीय समाज के सामने है। इस संकट को क्या हम पहचान कर सावधान हो सकते हैं? यदि सावधान न हुए तो हम अपनी महान् विरासत को यूं ही खो देंगे।

अखिलेश आर्येन्दु

अखिलेश आर्येंदु

चिंतक, पत्रकार और समाजकर्मी पता-ए-11, त्यागी विहार, नांगलोई, दिल्ली-110041 मो. 9868235056