धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर के ध्यान चिन्तन में मनुष्य का मन क्यों नहीं लगता?

ओ३म्

वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का अनुयायी सत्यार्थप्रकाश सहित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों सहित वेद एवं वैदिक साहित्य का स्वाध्याय व अध्ययन करता है और ईश्वर के सच्चे स्वरूप से परिचित होता है। वह जानता है कि सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, पवित्र, न्यायकारी, पक्षपातरहित एकमात्र ईश्वर ही सबका माता, पिता और आचार्य है। वह यह भी जानता है कि मूर्ति व संसार के सभी भौतिक पदार्थों में ईश्वर के होने पर भी मूर्तिपूजा से ईश्वर को प्राप्त व उसे प्रसन्न नहीं किया जा सकता। वेदों व योग दर्शन आदि के अनुसार ईश्वर के गुणों, उसके कार्यों का ध्यान व उसका कीर्तन कर ही आत्मा को शुद्ध कर ईश्वर को प्राप्त व उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। वह ईश्वर हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी और हमारे लिए कर्म के फलों का विधान करने वाला है। हमें जीवन में जो सुख व दुःख प्राप्त होते हैं वह सब हमें अपने पूर्व कृत कर्मानुसार, इस जन्म व पूर्व जन्मों के भी, परमात्मा की व्यवस्था से मिलते हैं। हमें भविष्य में जो सुख व दुःख प्राप्त होंगे वह भी ईश्वर द्वारा हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्मों के अनुसार ही मिलेंगे। औरों की तो बात ही क्या, आर्यसमाज के विद्वान व अनुयायी किंवा नेता आदि भी आर्यसमाज की मान्यताओं के अनुसार स्वाध्याय, ईश्वरोपासना, यज्ञ आदि परोपकार के कार्य एवं असत्य के त्याग एवं सत्य के ग्रहण व पालन में तत्पर दिखाई नहीं देते हैं। वैदिक धर्म के अनुसार हमें प्रातः व सायं दो समय कम से कम 1 घंटा ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व उपासना अवश्यमेव करनी चाहिये। यदि हम करेंगे तो हम कृतघ्नता के पाप से बचेंगे और यदि नहीं करेंगे तो कृतघ्न होंगे क्योंकि ईश्वर के जितने उपकार हम पर हैं, हम कितना कुछ क्यों न कर लें, हम कभी ईश्वर के उन उपकारों से उऋण नहीं हो सकते। प्रश्न है कि हम ईश्वर के प्रति उसकी उपासना के कर्तवय से विमुख क्यों हैं? इसका सामान्य सा उत्तर है कि ईश्वर की उपासना, ध्यान व चिन्तन आदि कार्यों में हमारा मन नहीं लगता है। इसका कारण क्या है, इसी पर विचार करने के लिए हम कुछ पंक्तियां लिख रहे हैं।

ईश्वर की उपासना व भक्ति में हमारा मन इसलिये नहीं लगता कि हमारे संस्कार ईश्वर भक्ति के अनुरूप नहीं हैं। संस्कार भी इस जन्म व पूर्व जन्म दोनों के होते हैं। पूर्व जन्म के संस्कार नहीं हैं, कोई बात नहीं, इस जन्म में तो हम ईश्वर के प्रति प्रेम व भक्ति के संस्कार उत्पन्न कर सकते हैं। इन संस्कारों को उत्पन्न करने का सुलभ मार्ग ऋषिकृत ईश्वर भक्ति के ग्रन्थों सहित वेद आदि साहित्य का अधिक से अधिक अध्ययन वा स्वाध्याय है। ऋषि तुल्य विद्वानों व आप्त अर्थात् ज्ञानी सज्जन पुरुषों के उपदेशों से भी हम लाभान्वित होकर अपने संस्कारों को उन्नत व विकसित कर सकते हैं। हम समझते हैं कि स्वाध्याय से मनुष्य में अविद्या का नाश होकर विद्या की वृद्धि होती है। स्वाध्यायशील मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा और संसार के यथार्थ स्वरूप से परिचित हो जाता है। आत्मा की अल्पता व न्यूनताओं व ईश्वर के आश्रय का उसे ज्ञान होने के साथ ईश्वर के गुणों व उसके सभी मनुष्यों व प्राणियों पर रात दिन व हर क्षण, हर पल रक्षा, सेवा, ज्ञान प्राप्ति, बल व स्वाध्याय वृद्धि, अन्न, जल व वायु की प्राप्ति, गोदुग्ध व अन्य ऐश्वर्यों की प्राप्ति सहित परिवारजनों, आचार्यों व मित्रों की उपलब्धि निरन्तर होती रहती है। अतः मनुष्य का कर्तव्य बनता है कि वह ईश्वर को जानकर उसके गुण, कर्म व स्वभाव का चिन्तन करते हुए उन्हें धारण करें और ईश्वर का अनेकानेक उपकारों के लिए बारम्बार धन्यवाद करे। आसन व प्राणायाम सहित यम व नियमों का अभ्यास करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है। अतः इस कार्य को करने के लिए एक कमी तो मनुष्य के संकल्प व प्रतिज्ञा अथवा व्रत न लेने की होती है। जितना दृण मनुष्य का संकल्प व व्रत होगा, उतना ही सन्ध्या व ईश्वरोपासना के कर्तव्य पालन करने में सरलता व नियमबद्धता होगी। अतः मनुष्य को प्रतिदिन अधिक से अधिक स्वाध्याय व दृण संकल्प लेने की आवश्यकता है। यदि संकल्प कर लिया और उसके पालन के लिए स्वार्थ व इच्छाओं का त्याग करने का मन बना लिया तो ईश्वरोपासना व ईश्वर की भक्ति में मन लगना आरम्भ हो जायेगा। व्रत का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि आप रात को मन में निश्चय कर सोये कि मुझे प्रातः तीन या चार बचे जागना है, तो प्रायः देखा गया है कि मनुष्य निर्धारित समय व उससे कुछ पूर्व ही जाग जाता है। यह कार्य हमारी आत्मा व परमात्मा पृथक पृथक या दोनों मिलकर कैसे करते हैं, यह तो पता नहीं, परन्तु हमारा यह अनुभव है कि सभी के साथ ऐसा होता है कि वह समय पर जाग जाते हैं। इसी प्रकार संकल्प करेंगे तो समय पर सन्ध्या का ध्यान आयेगा और कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद सन्ध्या न करने पर ऐसा अनुभव होगा कि सन्ध्या व ध्यान न करने पर आत्मा हमें धिक्कारती है जो सन्ध्या करने की एक प्रकार से प्रभु प्रदत्त प्रेरणा कही जा सकती है क्योंकि ईश्वर जीवात्मा के भीतर विद्यमान होने से अपनी बात को मनुष्यों को प्रेरणा द्वारा ही बताता है।

हमें ईश्वरोपासना व सन्ध्या के लाभों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। सन्ध्या करने से ईश्वर और हमारी आत्मा का परस्पर मेल होता है। आप जिस बात व काम को बार बार करते हैं उसकी प्रवृत्ति बन जाती है। यदि हम सन्ध्या आदि नियमित रूप से करेंगे तो हममें यह संस्कार दृण होगा और हमारा मन कुछ ही दिनों में ईश चिन्तन में लगने लगेगा। अभ्यास का अपना महत्व होता है। हमें यह भी जानना आवश्यक है कि आलस्य हमारा बहुत बड़ा शत्रु है। आलस्य के वशीभूत होकर सिद्धि व सफलता प्राप्त नहीं होती। अतः आलस्य को दूर रखना चाहिये और सदैव क्रियाशील, गतिशील व कर्तव्यादि आवश्यक कार्यों में व्यस्त रहना चाहिये। सन्ध्या करते हुए आरम्भ में यदि मन न लगे तो वेद मन्त्रोच्चार करने सहित भजन आदि भी गाये जा सकते हैं। हल्की आवाज में ईश्वर भक्ति के कुछ प्रमुख भजनों को सुना भी जा सकता है। और यदि इसमें भी कुछ समय में मन इधर उधर भ्रमण करे तो तो फिर आर्याभिविनय व प्रसिद्ध आर्य विद्वानों के चुने हुए वेद मन्त्रों की व्याख्याओं के संकलन के कुछ मन्त्रों का अध्ययन व पाठ किया जा सकता है। ऐसे करने से ध्यानी व उपासक अथवा भक्त में संस्कार बनेंगे व अभ्यास में वृद्धि होगी जो उसे भविष्य में एक सच्चा व अच्छा उपासक बना सकती है। ऋषि दयानन्द के अनुभव सिद्ध इन शब्दों का ध्यान भी रखना चाहिये कि ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना से मनुष्य की आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान दुःख आने पर भी घबराता नहीं है अर्थात् उन्हें सहन कर लेता है। वह पूछते है कि क्या यह छोटी बात है? आगे वह लिखते हैं कि जो प्रातः सायं ईश्वर की उपासना नहीं करता वह कृतघ्न होता है। इसलिए कि ईश्वर के उपकारों को भूल जाना ही ईश्वर के प्रति कृतघ्नता ही है।

एक प्रमुख बात यह भी है कि उपासक को अपने मन को सदैव शुद्ध व पवित्र रखना है। दुष्टता, दुराचार, भ्रष्टाचार व परिग्रह की प्रवृत्ति से दूर होना होगा। आचार व विचार दोनों शुद्ध रखने होंगे। भोजन शाकाहारी व सात्विक होना आवश्यक व अपरिहार्य है। समय पर भोजन करना व अल्प मात्रा में करना रोगों से हमें दूर रखते हैं व स्वस्थ जीवन प्रदान कराते हैं। इन सब बातों का उपासना व भक्ति से सम्बन्ध है। यह भक्ति में सहायक व आवश्यक हैं। इसके साथ ही स्वाध्याय करते हुए ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था पर भी दृण विश्वास करना है। यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो हम सदाचारी व अच्छे उपासक नहीं हो सकते। हमें कर्म फल व्यवस्था पर विचार करना है और यह निश्चय करना है कि हमारे प्रत्येक कर्म का फल हमें मिलेगा और उसे भोगना हमारी विवशता होगी। उससे बच नहीं सकेंगे। इतना सब कर लेने पर निश्चय ही ईश्वरोपासना में हमारा मन लगेगा। हम ऐसा अनुभव करते हैं। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य