धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

रामचरितमानस में मानव मूल्यों का चित्रण एवं स्थापना

आर्यावर्त से इंडिया तक की यात्रा में आर्यावर्त के परम पूज्य पुण्यधाम के प्रतीक श्रीराम का स्मरण मात्र भी सुख देना वाला है। संत तुलसीदास कहते हैं कि राम नाम ही अपने आप में एक सम्पूर्ण विज्ञान और धर्म है। इस विज्ञान और धर्म का जो सामंजस्य बिठा लेता है वह राम का अनुचर बन जाता है और जो नहीं बिठा पाता वह अन्धविश्वास और अन्धश्रद्धा में डूबकर अपना अनमोल जीवन यूं ही व्यर्थ गंवा बैठता है। मानसकार कहते हैं- बंदउँ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। अमिअ मूरियम चूरन चारू, समन सकल भव रुज परिवारू।। (मा-0-1-2)
संत तुलसीदास के जीवन में घटी घटनाएँ और उन घटनाओं से उन्होंने जो सीखा उससे उनका सम्पूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान, मानव मूल्यों और अध्यात्म की रश्मिों से युक्त हो गया। अपनी पत्नी के प्रति अतिशय लगाव और उससे मिली पत्नी द्वारा सीख ने उन्हें रामबोला से संत तुलसीदास बना दिया। लोक प्रचलित ये पंक्तियां-‘अस्थि धर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति, ऐसी जो श्रीराम में, होय न भव भय भीति’।। एक संासारिक व्यक्ति परिवार में सीख लेकर कैसे संसार को सत्य, प्रेम और आनन्द की राह दिखाने का कार्य करता है, संत तुलसीदास के जीवन दर्शन में हम देख सकते हैं। ऐसे संत तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में धर्म अर्थात् मानव मूल्यों की स्थापना किस हद तक हुई है, प्रस्तुत लेख में प्रमाणों के साथ देखने को मिलेगी।
भारतीय संस्कृति की ज्ञानमयी, विज्ञानमयी और ऋत्मयी अमृतधारा की संपृक्तता को विश्व मानस में जो प्रतिष्ठा प्राप्त है उसमें विश्व चेतना के सोमरस की स्थापना सनातन काल से होती आई है। इस सोमरस ने भारतभूमि को अतिप्रतिष्ठा दी है। यह सोमरस क्या है और इसका पान कौन करता है? इस प्रश्न को अतःकरण में समावेशित करने पर प्रकट होता है कि यह सोमरस और कुछ नहीं बल्कि वे मानव मूल्य हैं जो सच्चे अर्थों में मनुष्य को मानव बनाते हैं। जिनके पान करने से सारा जीवन दैव तुल्य हो जाता है। कहना न होगा कि इन मूल्यों का सर्वप्रथम दिग्दर्शन विश्व के प्रथम ज्ञान-विज्ञानमयी ग्रंथ वेद में होते हैं। वेद से होते हुए ये मूल्य विश्व के अन्य सभी धर्म, ज्ञान-विज्ञान और चेतना के ग्रंथों में किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होते दिखलाई पड़ते हैं। रामचरितमानस में ये मनुष्य को मानव बनाने वाले सोम अर्थात् मूल्य किस रूप में स्फुटित हुये हैं इसे हम विविध रूपों में देख सकते हैं। रामचरितमानस ऐसा कालजयी अमृतधारा का महाकाव्य है जिसमें मानव जीवन की पूर्णता और विज्ञानधर्मिता का दिग्दर्शन जीवंत रूप में द्रष्टव्य होता है। संत तुलसीदास ने भगवान राम और महर्षि बाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सम्पूर्ण जीवन चरित के माध्यम से मानव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कराने में सहायक मानव मूल्यों का वर्णन आदर्श ज्ञानमयी, भक्तिमयी और कर्ममयी धारा में किया है। राम का चरित मानवीय मूल्यों और सुभाषितों से किस प्रकार परिपूर्ण हैं इसे हम रामचरित- मानस के परिप्रेक्ष्य में विवेचित करेंगे।
जिस मर्यादा और संस्कार के कारण राम सर्वपूज्य हुए उस राम का जीवन वृतान्त ही तो है रामचरितमानस में। लेकिन बात मात्र इतनी ही नहीं है। राम के जीवन वृतान्त के द्वारा तुलसीदास ने समाज, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान और पौराणिक दर्शन को भी बहुत ही सरस, सरल और विज्ञानमय भाषा के माध्यम से समझाने का सफल प्रयास किया है। मर्यादा मानव की कैसी होनी चाहिए, इसे जो जानता समझता है वह राम बन जाता है और जो मर्यादा को न जानता और मानता है वह रावण और कुम्भकरण बन जाता है। मानव को मर्यादावान होना ही चाहिए। यह मर्यादा ही मानव धर्म का आभूषण यानी मूल्य हैं। जैसे मूल्य विहीन कोई वस्तु किसी काम की नहीं होती उसी प्रकार से मूल्य विहीन मानव जीवन भी किसी भी अर्थ का नहीं होता। अर्थात् निरर्थक होता है। मानस की ये पंक्तियाँ-‘‘नीति प्रीति यश-अयश गति, सब कहँ शुभ पहचान, बस्ती हस्ती हस्तिनी देत न पति रति दान’’। कहने का भाव यह है जिस भारत में हाथिनी हाथी को गाँव से बाहर जाकर रति दान देती है, वहाँ मानव को तो हरहाल में मर्यादा और संयम में रहकर ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। मूल्यों की स्थापना का यह उत्कृष्ट दृश्य है। और संयम, मर्यादा और धर्म का एक अन्य चित्रण देखिए-संयम यह न विषय कै आसा।। यह प्रेरणा और उपदेश आज और भी अधिक उपयोगी और प्रासंगिक है- पर धन कूँ मिट्टी गिनै, पर त्रिया मात समान। आगे…जननी सम जानहिं पर नारी।। यह है राम के आराधक का मानव जीवनदर्शन की उत्कृष्टता का एक दृश्य।
जब मानव मूल्यों से युक्त होता है तब उसमें दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य, सदाशयता, सहिष्णुता, धैर्य, परोपकार, संयम, पवित्रता, अपरिग्रह, सुचिता, शान्ति, सन्तोष, अभय, सत्साहस और आत्मविश्वास का उदय होता है। परमात्मा की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए वह जप, तप और व्रत जैसे साधनापरक कार्य में संलग्न रहता है। लेकिन जब उसमें मानव मूल्यों अर्थात् धर्म से सर्वदा और सर्वथा अभाव रहता है तो वह अनेक तरह के विकार, विषय और अज्ञानता से भर जाता है। गोस्वामी जी कहते हैं-जब तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना। सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ नहिं पावइ छेमा।।(मानस-94ख/5-6) ज्ञान, ध्यान, विज्ञान, साधना और धर्म का सम्यक् पालन करना प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है। राम, भरत, हनुमान और अंगद के माध्यम से मानसकार ने बहुत ही उत्कृष्टता के साथ मानस में वर्णित किया है। मानस की ये बहुप्रचलित पंक्तियाँ इस बात को बताती हैं-जप तप नियम जोग धर्मा। श्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा। ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।। आगम-निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर प्रभु एका।। तब पद पंकज, प्रीति निरन्तर। सब साधन कर यह फल सुन्दर।।(मा. 7-48/1 से 4)
भक्ति के वर्णन में तुलसी सगुण और निगुण शब्दों के माध्यम से भक्ति का निरुपण करते हैं। नवधा भक्ति पौराणिक जगत् में अति प्रसिद्ध है। परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना का वैदिक स्वरूप मानस में भले ही न हो लेकिन जिस रूप में है वह परम्परागत है। जैसे अन्धविश्वास और विश्वास में बहुत सूक्ष्म अन्तर है उसी तरह श्रद्धा और अन्धश्रद्धा तथा भक्ति और अन्धभक्ति में भी सूक्ष्म अन्तर है। तुलसी इस बात को मानस में कई स्थलों पर समझाते हैं। जन्म मरण के बन्धन से छूटने के लिए ईश्वर की सच्ची भक्ति और सतकर्म आवश्यक है। साथ ही परोपकार, विद्या और धर्म का पालन भी आवश्यक है। मानसकार कहते हैं वेद पर विश्वास और प्रभु की भक्ति से स्वर्ग का पथ मिल सकता है। ‘‘सद्गुरु बैद वचन विस्वासा एवं बिनु विस्वास भगति नहिं।।(मानस-7-90 क) मानव जीवन का परम लक्ष्य क्या है और इसे प्राप्त करने के लिए किस मार्ग को अपनाना चाहिए, इसका वर्णन मानस में अत्यंत जीवंतता के साथ किया गया है। -अर्थ न धर्म न काम रुचि, पद न चहँउ निर्वान। जनम-जनम रति राम पद, यह वरदान न आन।। (मा.2-204) परमार्थ धर्म का आधार है। या कहें मानव मूल्यों की धारा परमार्थ के पथ से होकर निकलती है। तुलसी कहते हैं-परमारथ स्वारथ सुख सारे, भरत न सपनेहुँ मनहिं निहारे। साधन सिद्धि राम पग नेहू, मोहि लखि परत भरत मत ऐहू।।(मा.2-288/7-8)
राम विश्व संस्कृति के अप्रतिम महामानव हैं। वह उन सभी सुलक्षणों, सद्गुणों, शुभाचारों और धर्मों से युक्त हैं जो किसी महामानव में होने चाहिए। राजमहल में पैदा होकर भी सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले श्रीराम का जीवन, निश्चय ही सब के लिए प्रेरणीय और अनुकरणीय है। राम का सारा जीवन ही सन्देश है। राम के सभी कार्य विलक्षण और सत्य के पर्याय हैं।
मानव जीवन की उत्कृष्टता जिन मूल्यों और भावों से भाषित होती है उसे सर्व स्वीकारिता और सार्वदेशिकता के परिपेक्ष्य में देखना ही उत्तम है। राम का सारा जीवन मानव की सर्वोच्चता, शुभता और ज्ञान-भक्ति-प्रेम की अभिव्यंजना से परिपूर्ण है। तुलसी ने इसे अपने भावों के उद्द्रेग में देखा है। राम नाम को अंक के माध्यम से सजाने वाले तुलसी ज्योतिष की दृष्टि से मूल्यों को देखने का प्रयास किया है। ‘‘राम नाम कौ अंक है, सब साधन हैं सून’’(दोहावली) राम वेद पढ़ने वाले थे। उनका सारा जीवन वेद के अनुकूल था। रामचरित मानस की ये पंक्तियां…‘‘वेद पढ़हिं जनु वटु समुदाई’’। वेद पढ़ने वाला मनुष्य ज्ञानवान बनता है। उसे जीवन की सुभाषितों का सम्यक् ज्ञान होता है। वह ज्ञान-विज्ञान धर्मी बनकर मानवता के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने में स्वयं को गर्व का अनुभव करता है। राम का जीवन सुभाषितों से परिपूर्ण इसी लिए था क्योंकि वे वेद का स्वाध्याय करने वाले थे और वेद के पथ का ही अनुशरण करने वाले थे।
शुभ और अशुभ नामों का स्मरण संत तुलसी दास की दृष्टि में जानना आवश्यक है। जैसे राम नाम का स्मरण करना शुभ और रावण नाम का स्मरण अशुभ माना गया है। इसी प्रकार सीता और सती अनुसूया का स्मरण शुभ और मन्दोदरी और सूपनखा का स्मरण अशुभ बताया है।
इसके पीछे मनोविज्ञान है जिसे समझने की आवश्यकता है। हम राम नाम का स्मरण करते ही यह धारणा बना लेते हैं कि राम नाम के जप मात्र से शुभ होता है। इसी तरह सीता नाम के स्मरण और जप से कल्याण होता है। किसका कितना कल्याण होता है, यह परीक्षण और शोध का विषय हो सकता है। हमारी संस्कृति में शुभ-लाभ जैसे प्रतीक शताब्दियों से प्रचलित रहे हैं। ये हमारे मूल्यों के साथ किसी न किसी रूप में जुड़े दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि यात्रा के समय निकलते हुये भी इन्हें स्मरण करना शुभ माना गया है। दोहावली में तुलसी कहते हैं-‘तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम। सगुन मंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम।।’’
मूल्यों को जीवन में अपनाना जीवन को सफल बनाने की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। धीरज, साहस, प्रेम, करुणा, दया, अहिंसा और सत्य जैसे अनेक सद्गुण हमारे जीवन को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ‘‘धीर बीर रघुबीर प्रिय सुमिरि समीर कुमारु। अगम सुगम सब काज करु करतल सिद्धि विचारु।। राम धीर, वीर, गम्भीर प्रकृति वाले हैं। आगम ग्रन्थों में मानव के धर्म-अध्यात्म की चर्चा की गई है। राम वेद-वेदांग दोनों का स्वाध्याय किये थे। वेद में सभी प्रकार के सद्गुणों का वर्णन किया गया है। इसी तरह अनेक प्रकार की मर्यादाओं, प्रेरणाओं और सुचिताओं का भी वर्णन किया गया है। राम ने वेद-वेदांग में से जो मूल्य, तत्त्व और ज्ञान-प्रेरणा ग्रहण किये थे वे उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गये थे। राम इस दृष्टि से भी हमारे लिए प्रेरणीय और वन्दनीय हैं। जिसका जीवन ही वेदमय हो, वह कैसा होगा इसे राम के जीवन को देखकर हम सुगमता से समझ सकते हैं।
सुख-दुख जीवन के वास्तविक पक्ष हैं। धरती पर ऐसा कोई मानव नहीं जिसे दोंनों से कभी न कभी गुजरता न पड़ा हो। राम के जीवन में भी ये दोनों पक्ष बराबर द्रष्टव्य होते हैं। लेकिन वे न तो सुख में इतराए ही और न दुख में घबराए ही। यानी वह दोनों स्थितियों में सम्यक् रूप से ‘सम’ बने रहे। मूल्यवान और ज्ञानवान मानव का जीवन इसी प्रकार का होता है। दूसरों के लिए जिसका जीवन समर्पित होता है, उसका जीवन कभी व्यर्थ नहीं जा सकता है। मानसकार कहते हैं-परहित लागि तजइ जो देहि, संतत संत प्रसंसहिं तेही।(मानस 1-81-1) मानस में मूल्यपरक व्यंजना पग-पग पर है। ये व्यंजनाएँ जीवन को सम्पूर्ण और अर्थपूर्ण बनाती हैं। तुलसी कहते हैं-परहित बस जिनके मन माँही, तिन कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।(मानस 3-30-5) जिन मूल्यों, सद्गुणों, सद्भावों, विशिष्टताओं और आचरणों के कारण कोई मानव भगवान पद प्राप्त करता है वे मानव को उसकी सर्वोच्चता को प्राप्त कराते हैं। उदाहरण के रूप में भगवान पदवी प्राप्त करने वाले महामानव मर्यादा पुरुषोत्तम राम उन सभी सदगुणों, सद्भावों, विशिष्टताओं और आचरणों से ओतप्रोत हैं जिनसे वह अलौकिक और दिव्यात्मा बनते हैं। यह श्लोक…ऐश्वर्यस्य समग्रस्य शौर्यस्य यशसः श्रियः।। ज्ञानवैराग्य योश्चैव षष्णं भग इतीरणा।। यानी सम्पूर्ण ऐश्वर्य, शौर्य, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य-ये छः गुण ‘भग’ के कहे गये हैं। इसी ‘भग’ से भगवान् शब्द बना हुआ है।
संत तुलसी ने व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और विश्व स्तर पर मानव मूल्यों की महत्ता का वर्णन राम के माध्यम से किया है। एक सम्पूर्ण मानव राम, एक आदर्श मित्र राम, एक आदर्श पुत्र राम, एक आदर्श भाई राम, एक आदर्श पति राम, एक आदर्श शिष्य राम, एक पिता राम, एक आदर्श राजा राम और एक आदर्श साधक राम के रूप में तुलसी ने राम के गुणों का जो वर्णन किया है, वह प्रत्येक दृष्टि से सर्वोत्तम है।
सत्य मानव जीवन का आधार है। मानस में सत्य का प्रतिपादन पदे-पदे किया गया है। राम सत्य के अनुचर और सत्य के प्रतीक हैं। मानसकार कहते हैं-‘‘धर्म न दूसर धर्म समाना, आगमनिगम पुरान बखाना। (मानस 2-94-3) धर्म सभी सद्गुणों का मूल है। और धर्म का पालन बिना श्रद्धा के नहीं किया जा सकता। तुलसी कहते हैं-‘‘श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई’’।(मानस-7-89ख/2) तुलसी के मानव मूल्यों के वर्णन में धर्म को व्याख्यायित किया गया है। धर्म सब का आधार है। अयोध्याकाण्ड में गुरु वशिष्ठ ने धर्म को सूत्र रूप में भरत को समझाने का प्रयास किया है-‘‘सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना, तज निज धरमु बिषय लयलीना।।

तुलसी दास ने राजा, पति, अतिथि, मित्र और नारी के धर्म सूत्र को भी समझाने का प्रयास विविध प्रकार से किया है। ….सोचिअ नृपति जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना। सोचिअ बयसु कृपन धनवानु, जो न अतिथि सिव भगति सुजानू। मानसकार आगे कहते हैं-सोचिअ पति बंचक नारी, कुटिल कलहप्रिय इच्छाधारी।
जिस धर्म(मानव मूल्य) की बात तुलसी मानस में करते हैं वह धर्म व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और सम्पूर्ण मानव समाज का पालक है। रामचरितमानस में इसका अत्यंत व्यावहारिक वर्णन किया गया है-….सब विधि सोचिअ पर अपकारी, निज तनु पोषक निरदय भारी। सोचनीय सबही बिधि सोई, जो न छाड़ि छलु हरि जन होई’’।(मानस 2-171-3 से 172, 4 तक) जिन मूल्यों की स्थापना के लिए संत तुलसी ने रामचरितमानस की रचना की वे मूल्य आज भी प्रासंगिक और उपयोगी हैं। ये मूल्य परिवार, समाज, देश-जाति में निभाये जाने वाले धर्म हैं। एक उदाहरण स्त्री का धर्म राम की दृष्टि में क्या है, मानस की निम्न पंक्तियों में….एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा, सादर सास-ससुर पद पूजा’’। (मानस-2-60/3) इसी प्रकार राजनीति के मूल्य यानी राजधर्म का वर्णन मानस में इस प्रकार किया गया है-‘‘राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा’’।(मानस 3-20-8) राजनीति बिना धर्म के पंगु और लूली है। वह बिना धर्म के गंूगी और अंधी है। धर्म अर्थात् मूल्य सभी वर्गों के लिए अनिवार्य हैं। महाभारत में वेदव्यास कहते हैं-धारणाद् धर्म मित्याहुर्धर्मो धारयति प्रजाः। धर्म को जो धारण करता है धर्म उसे धारण करता है। कहने का भाव यह है कि जिसका जीवन धर्म से सम्पृक्त है उसका जीवन सफल हो जाता है। मानसकार कहते हैं-‘‘राज कि रहइ नीति बिनु जानें।’’ यह है राजनीति में मूल्यों के महत्व की सार्थकता। तुलसी कहते हैं-जीवन मूल्य, समाज मूल्य और मानव मूल्य की स्थापना के बिना एक आदर्श, सर्वोत्तम और सुखी समाज की स्थापना नहीं की जा सकती है। जिस मानव की चेतना जागृत रहती है वह कभी पतित नहीं हो सकता। मानस में इसका पग-पग पर वर्णन किया गया है। राम के प्रति अन्यय प्रेम रखने वाला मानव कभी युग-धर्म से प्रभावित नहीं होता है। क्योंकि राम
का जीवन चरित्र युग-धर्म की द्वंद्वात्मक विश्रृखलाओं से पूरी तरह रहित है। काल धर्म नाहिं व्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाही’’।(मानस.7-103/4) मानस में युगानुरूप धर्म के चार चरणों का वर्णन किया गया है। वे हैं,-सत्य, दया, तप और दान। इन चार चरणों की व्याख्या मानस मर्मज्ञ अपनी सुविधानुसार करते हैं। लेकिन मेरा चिन्तन कहता है कि ये मानव को सम्पूर्णता दिलाने वाले मूल्य हैं जिसकी आवश्यकता प्रत्येक युग में प्रत्येक मानव को होती है। रामराज में इन चारों चरणों की विद्यमानता थी। इस लिए रामराज को स्वर्ग का राज कहा जाता है जहाँ निवास करने के लिए देवता भी आतुर रहते हैं। मानस की ये पंक्तियाँ..‘‘प्रकट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हे, दान करइ कल्यान’’।(मानस.7-103ख)
मानव मूल्यों की स्थापना प्रत्येक युग में राम जैसे युगपुरुष करने के लिए जन्म लेते हैं। वह चाहे राम हों कृष्ण हों या दयानन्द हों। ‘‘जब जब होइ धरम कै हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी। तब-तब प्रभु धरि विविध शरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा’’।(मानस-1-120घ/3-4) धर्म की स्थापना मानव मात्र के कल्याण के लिए होता है। इसे मूल्य दर्शन में हम इस प्रकार कह सकते हैं- मूल्य मानव जीवन के आधार हैं। जिस प्रकार से बिना नींव के कोई भवन नहीं निर्मित हो सकता है उसी प्रकार से बिना मानव मूल्य के मानव-रूपी भवन का निर्माण नहीं हो सकता है। धर्म के पालन यानी मूल्यों के ग्रहण करने से मानव के सभी तरह के दुख, विसंगति, शोक, प्रमाद, क्रोध, हिंसा करने की प्रवृति, अज्ञानता, विषाद और अति काम की प्रवृति का नाश हो जाता है। मानसकार कहते हैं-‘‘धरम तें बिरति जोग तें ज्ञाना, ज्ञान मोच्छप्रद वेद बखाना’’।(मानस-3-15/1) धर्म का पालन करने वाले लाखों में कोई एक होता है इसी प्रकार मूल्यों को जीवन का आधार बनाने वाला भी कोई एक होता है। राम उन लाखों मानवों में से एक हैं जिन्होंने धर्म का सम्यक् पालन किया। जिनका सारा जीवन ही धर्ममय है। मूल्य जिनके जीवन के आभूषण हैं। मानसकार कहते हैं-‘‘नर सहस्त्र में सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्म व्रत धारी’’। (मानस-7-53/1) मानव मन के आदर्श, मर्यादा, नियम, संयम और मूल्य मानस की विशेषताएँ हंै। रामचरितमानस में जिस राम को अवतारी बताने के लिए तुलसी ने अपनी ओर से अनेक अलंकारों, व्यजनाओं, रूपकों, मिथकों और प्रतीकों का सहारा लिया वे कहीं न कहीं मानव मूल्य से जुड़ते हैं। रामचरितमानस का स्वाध्याय करते हुये हमारी चेतना यदि खुली हुई है तो हम निश्चित ही राम को ईश्वर नहीं अपितु एक आदर्श मानव समाज का युगीन चेतना का सर्वोच्च मानव के रूप में देख सकेंगे।
मानव के विभिन्न व्यवहारों, सम्बन्धों, भावों और मर्यादाओं में धर्म अर्थात् मूल्य का स्थान सर्वोपरि है। मूल्यों से रहित कोई भी व्यवहार, सम्बन्ध, भाव और मर्यादा निर्मित नहीं हो सकते हंै। उदाहरण के रूप में मैत्री तभी निभाई जा सकती है जब मित्रता के मूल्य यानी धर्म को सत्यता के साथ निभाया जा सके। …‘‘जे न मित्र दुख होहि दुखारी, तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी।
विपत्ति काल में जो निष्ठा के साथ मित्रता का निर्वाहन करे वही सच्चा मित्र है। राम ने सुग्रीव, हनुमान, बिभीषण, अंगद आदि के साथ इस मित्रता का सम्यक् निर्वाहन किया था। ….‘बिपत्ति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन ऐहा’’।।मानस-4-6/1-3) धर्म सगे-सम्बन्धों, मर्यादाओं और व्यवहारों को ही नहीं व्याख्यायित करता अपितु जीवन की समग्रता को भी व्याख्यायित करता है। पुत्र धर्म का जैसा निर्वाह मानस में वर्णित है वैसा विश्व के अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। तुलसी कहते हैं पितु-आज्ञा सभी धर्मों में सर्वोच्च है। राम ने माता-पिता की आज्ञा का निर्वाह जिस प्रकार वह अन्य कहीं नहीं मिलता। पितु आयसु सब धरमक टीका’’(मानस-2-54/4) मानस की यह प्रसिद्ध पंक्ति..‘‘जो पितु मातु कहेउ बन जाना, तो कानन सत अवध समाना’’। (2-55/1) अपने अग्रजों के साथ यथायोग्य व्यवहार जैसा राम के जीवन में दिखलाई पड़ता है वैसा अन्य किसी भी के जीवन में नहीं दिखाई पड़ता है। यह मानव मूल्यों के प्रति आदर के कारण है। इसी को स्वधर्म पालन करना भी कहा जाता है। तुलसी कहते हैं राम धर्म के अवतार हैं। उनका जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही हुआ है। धर्म जीवन का हेतु है। इस लिए अधर्म का नाश करना धर्म के पालन के लिए अति आवश्यक है। -मातु पिता गुरु स्वामि निदेसू, सकल धरम धरनी धर सेसू’’।(मानस-2-305/1) भ्रातृधर्म का निर्वाह मानस में राम को लेकर ही नहीं दिखलाया गया है अपितु भरत, लक्ष्मण, शत्रुधन और अन्य अनेक भाइयों के व्यवहारों में मिलता है। हम मानस में मानव मूल्य की व्याख्याओं को धर्म के रूप में देखते हैं। शब्दों का मात्र परिवर्तन भर है। मानस में मानव मूल्यों को प्रत्येक स्थान पर ‘धर्म’ शब्द से अविहित किया गया है। गुरु वशिष्ठ मानस में धर्म विषयक अग्रलिखित तीन बातों का उल्लेख किया है-1. धर्म को समझना, 2-समझने के पश्चात वाणी के द्वारा उसके विषय में कुछ कहना, 3-जो समझा और कहा, उसे अपने जीवन में उतारना। राम के अतिरिक्त ये तीनों बातें भरत में भी द्रष्टव्य होती हैं-समुझब, कहब, करब तुम सोई, धरम सार जग होइहि सोई’’। (मानस-2-3-22/1) एक अन्य स्थान पर धर्म और भरत को पर्याय बताते हुये तुलसी कहते हैं-‘‘जो न होइ जग जनम भरत को, सकल धर्म धुरि धरनि जगत को’’।( मानस-2-232/1)
प्रभु की अनुकम्पा जिसके ऊपर हो जाती है उसका इह लौकिक और पारलौकिक दोनों का सुधार हो जाता है। यदि मानव मन, वचन और कर्म से छल छोड़कर सच्चाई का मार्ग अपना ले तो उसे प्रभु का आशीर्वाद मिल जाता है। फिर उसे सांसारिक उपचार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।-करम बचन मन छाड़ि छल, जब लगि जनु न तुम्हार। तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं, किये कोटि उपचार ।।(मा. 2-107) प्रभु के प्रेम में पागल होकर जो मानव आनन्द में रत हो जाता है, और मन, वचन व कर्म से जो आनन्द के लिए प्यासा हो जाता है उसके लिए सामान्य दिनचर्या कलह में किसी प्रकार की कलह और शोक का कोई स्थान नहीं होता है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव को मिले संस्कारों के अनुसार जो जीवन व्यतीत करता है वह सब के लिए आदर्श बन जाता है। मानस में राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन चारों भाइयों को मिले संस्कारों और उनके प्रभावों के सम्बन्ध में तुलसीदास बहुत भावपूर्ण शब्दों में वर्णन करते हैं। राम को राम और भरत को भरत बनाने वाले उनके संस्कारों ने उन्हें धरती पर हमेशा के लिए अमर बना दिया। जो मरणधर्मा मानव अपने कर्मों और जाति के कारण इस संसार में मृत्यु के भवपाश से नहीं बच पाता वे कर्म और जाति ही उसे कैसे ‘अमरता’ दिला सकते हैं इसे राम, भरत सहित अनेक अमरणधर्मा मानवों को देखकर हम समझ सकते हैं। संस्कारों के कारण ही जल की एक बँूद सीप के सम्पर्क में आकर मोती बनती है और धूल के सम्पर्क में आकर कीचड़ में बदल जाती है। कहने का भाव यह है कि मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाने वाले संस्कार ही होते हैं। वेद पढ़ने वाला ब्राह्मण बन जाता है और विद्या से हीन व्यक्ति शूद्र कोटि में गिना जाता है। संत तुलसीदास कहते हैं-गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा/कीचहिं मिलइ नीच जलसंगा। साधु असाधु सदन सुक सारीं/सुमिरहिं राम देहि गनिगारीं।
संगति, विद्या, शिक्षा, अनुभव और चिंतन मानव को जहाँ सद्चरित्र मानव बनाते हैं वहीं पर उसे मोक्ष का अधिकारी भी बनाते हैं। श्रीराम का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक परम पावन रहा। काम, क्रोध, मद, लोभ और मत्सर उन्हें कभी सताये ही नहीं। ऐसे विलक्षण महामानव में मानव के सभी मूल्यों का होना निश्चित ही उन्हें वंदनीय और अभिनन्दनीय बनाता है। मानसकार कहते हैं-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ। कहहिं संत
कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ। (मा. उत्तरकाण्ड 33) परमानंद की अनुकम्पा से मानव अपनी उत्कृष्टता और परम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। लेकिन प्रभु कृपा मिले कैसे यह एक बड़ा प्रश्न है? मेरा चिन्तन कहता है जिस प्रकार से सूर्य की रश्मियों का लाभ लेने के लिए हमें घर से बाहर निकलना होता है और मनोवेग से सूर्यदेव की अनुकम्पा से हम तृप्त हो जाते हैं उसी प्रकार से परमानन्द की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए हमें अपनी छुद्र ऐषणाओं और वासनाओं से बाहर निकलकर उसकों प्राप्त करने के लिए निरन्तर साधना करनी चाहिए। मन में पवित्रता, शुभता, सत्यता, करुणा, अत्यन्त जिज्ञासा और छटपटाहट जैसी स्थिति बन जाए तो समझो बेड़ा पार हो गया। हम धन, पुत्र, माता-पिता, सहोदर और अन्य स्वार्थ से बँधे सम्बन्धियों के लिए तो रोते-गाते हैं लेकिन क्या कभी पवित्र भावना से अत्यन्त छटपटाहट के साथ ईश्वर को प्राप्त करने के लिए रोते-गाते हैं? जिस दिन हममें ऐसी स्थिति आ जाएगी उस दिन हम ईश्वर के हो जाएंगे और ईश्वर हमारा हो जाएगा। तुलसीदास मानस में कहते हैं-परमानन्द कृपायतन न परिपूरन काम। प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।(मा.उत्तरकाण्ड 34) यह है मूल्यों का प्रभाव। जिसे हम पढ़-लिखकर भी आजीवन नहीं समझ पाते हैं।
आज के भौतिकवादी युग में जहाँ सब कुछ धन बल और पद बल से तय होता है। जहाँ सारे सम्बन्ध बाजार से तय होने लगे हैं ऐसे में रामचरितमानस का मूल्यवाद नई आशा की किरण लेकर आता है। मानस का मूल्यवाद यानी मानव मूल्यों की स्थापना का कार्य समाज, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, देश और मानव जाति के लिए अत्यन्त लाभकारी है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हमारी दृष्टि, विचार और कार्य पवित्र और परमार्थ से भरे हों। तुलसी कहते हैं-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद। ते नर पाँवर पापमय देह धरे मनुजाद।।मा. उत्तरकाण्ड 39) मानसकार एक ओर मानव को सावधान करते जाते हैं तो दूसरी ओर राम के उज्ज्वल और सर्वश्रेष्ठ चरित्र को दिखलाते जाते हैं। यानी बुराई से सावधान करते हुए अच्छाई की ओर निरन्तर आगे बढ़ते जाने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। मानसकार की ये प्रेरक पंक्तियाँ -सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक। गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।(मा. उत्तरकाण्ड 49)
मानस में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की विवेचना जिस भाव और प्रेरणा के साथ हुई है वह प्रत्येक मानस-प्रेमी को उसका दीवाना बना देती है। मूल्यों की स्थापना इन चारों पुरुषार्थों के साथ ही हुई है। आज वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के युग में जहाँ बाजार जीवन, परिवार, समाज और संस्कृति के प्रत्येक धड़कन में व्याप्त हो चुका है ऐसे में रामचरितमानस का मानव मूल्यों की स्थापना का कार्य विश्व कल्याण के लिए एक वरदान के समान है। आइए, हम जीवन को मूल्यों से संपृक्त कर लें और गिरती मानवता को संभालकर उसे नया जीवनदान देने में स्वयं को समर्पित करने के लिए संकल्पित हो जाएँ।

अखिलेश आर्येन्दु

अखिलेश आर्येंदु

चिंतक, पत्रकार और समाजकर्मी पता-ए-11, त्यागी विहार, नांगलोई, दिल्ली-110041 मो. 9868235056