हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – चिंतामणि की चिंता और सरकार

आप चिंता न करिएगा। मैं जिस बात पर चिंतन करने जा रहा हूं, वह चिंता पर ही है। आप सोच सकते हैं तो सोचिए कि बिना चिंता के कोई माई का लाल चिंतन कर सकता है! जो जिस विषय का जानकार होता है, वही उस विषय पर बाकायदा भाषण वगैरह दे सकता है। इस बात को भला कौन इनकार कर सकता है! वैसे चिंता करने की उनकी आदत बहुत पुरानी हैं। कितनी पुरानी है, यह वह भी नहीं जानते। उनके वालिद कहा करते थे, जब वह पैदा हुए उनके मंुह से ‘चिंता’ शब्द वैसे ही निकला था जैसे तुलसी के मंुह से राम। तुलसी राम के हो गए और वह ‘चिंता’ के। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चिंता करने का इतिहास उनका कितना पुराना है। चिंता करने का रिकार्ड उनके ही नाम दर्ज है। यहां तक कि सरकार भी उनकी चिंता को सिर नवां कर सलाम करती है। आज तक किसी ने उनका रिकार्ड नहीं तोड़ा है। इसके बावजूद उन्हें किसी ‘रत्न’ के काबिल नहीं समझा गया। कम से कम ‘चिंता-रत्न’ का अवार्ड तो उन्हें मिलना ही चाहिए था। लेकिन इसकी उन्होंने कभी चिंता नहीं की। लोग झूठ मानते हैं। जो चिंता करने का रिकार्डधारी हो वह ईनाम-इकराम न मिलने पर चिंता न करे-जब कि सारी कवायद आज ‘ईनाम’ के लिए ही चल रही है? जिसे ईनाम न मिला-चाहे सरकारी न भी तो भी-उसे कामयाब और प्रतिभावान नहीं माना जाता। खैर!
इधर जब से मोदी साहब ने गांवों की सुधि लेनी शुरू की है, नेकनियति है या बेनेक यह तो अल्लाह ताला जाने, तब से गांवों की चर्चा भी करने वालों की बाढ़ आ गई है। जहां देखिए वहीं, गांव नहीं जन्नत हो गए हैं। लोगों को क्या पता, भाई अब खपरैल, फूस और पाॅलीथीन वाले गांव नहीं रहे। गांव भी राजनेताओं की तरह लगातार बदलते जा रहे हैं। गांव में सफेदी वैसे ही चढ़ रही है जैसे बूढ़े ऐक्टर को नवजवान का रोल मिलने पर उसके चेहरे पर दिखती है। लेकिन लोग हैं, गांव-गांव की रट लगाएं हैं। अरे, इन्हें कौन बताए भाई, यदि रट लगानी ही है तो मोदी-मोटी रटो। कुछ हासिल भी होगा। गांव-गांव रटने से जब आज तक किसी को कुछ नहीं हासिल हुआ तो, अब क्या खाक हासिल होगा?
एक जमाना था जब शहर वाले गांव देखने जाते थे। जब वहां से लौटकर आते थे तो बड़े दबे मन से कहते थे, यार गांव क्या है, मुझे तो समझ में ही नहीं आया। बिना कहे लोग गुड़ की भेली लाकर लोटे में पानी के साथ रख दिए। बड़ा हैरान हुआ। यह क्या बत्तमीजी है, गुड़ की भेली और लोटे भर पानी? अरे, मैं आदमी नहीं क्या इन्हें जानवर दिखता हूं? उनकी तो चर्चा करना अपना टाइम बर्बाद करना है। इससे अच्छा है कि ताश खेलते और मजे से एसी में खर्राटे भरते। शहरी बाबू की गांव की बातें सुनकर वह चिंता में डूब गए। अब क्या होगा। गांव अभी वहीं के वहीं हैं। फिर क्या था, वह चिंता की पोटली लिए गांव की हालात देखने अपनी फिटफिटिया लिए चल पड़े। उन्हें चिंता थी, गांव की। और यदि गांव रेलवे से बहुत दूर हुआ तो, अपन तो परेशान हो जाएंगे। चिंता ऊपर से, परेशानी ऊपर से। ऐसे में दोहरा बोझ उठाने से रहे। चल पड़े चिंतामणि गांव की चिंता सीने में दबाए।
जैसे ही आगे बढ़े, एक बिल्ली ने रास्ता काट दिया। एक लड़के ने झींक दिया। एक काने ने टोक दिया। धत तेरी की। सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। अब क्या करते, और आगे बढ़े। पत्नी रास्ते में मिल गई। अब तो खैर नहीं। समझ में आ ही गया, आज का दिन ठीक नहीं। पत्नी ने छूटते ही पूछा-कहां चल दिए, जानती हूं गांव जा रहे होगे, लेकिन यह गांव जाने का समय नहीं है। अरे गांव तुमसे पहले मेरे भाई साहब हो आएं हैं। उन्होंने गांव की हालात जैसी बयां की मैं तो रो पड़ी। मेरी कसम है। एक कदम भी यदि गांव की ओर बढ़ाया। गांव की चिंता का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा था। सिर पर चिंता का बोझ उठाए, वह अब देर तक खड़े नहीं रह सकते हैं। तभी उन्हें समझ में आया, बेचारे राजनेता, देश-समाज की चिंता करते हुए क्यों इतना बौखला जाते हैं कि उन्हें किसी की मां-बहन भी याद नहीं रहती। वह लौटने ही वाले थे कि मोबाइल पर अपने प्रशंसक राजनेता का फोन आया देखकर ठिठक गए। फोन पर नेताजी कह रहे थे-चिंतामणि! चिंता करने की कोई बात नहीं है। तुम्हारी चिंताओं को कम करने के लिए ही मैंने गांव की चिंता करने का ठेका प्राइवेट कंपनियों को दे दिया है। ये कंपनियां दूसरे देशों की हैं। ये जो भी चिंता करेंगी, वह दूध का दूध और पानी का पानी होगा। इसमें किसी भ्रष्टाचार की गुंजाइश भी नहीं है।
चिंतामणि को बात समझ में आ गई। उनकी कामयाबी के रिंकार्ड पर सरकार नजर गड़ाए देख रही है। तभी तो वह हर क्षेत्र में, हर वर्ग की, हर जाति की, हर शहर-कस्बे की खबर लेने पर उतारू हो गई है। वरना आजादी के सात दशक हो गए, गांव-गांव चिल्लाते, लेकिन किसी मुंहजले ने क्या गांव की खबर ली? हद हो गई, अब गांव तक के विकास के चिंता करने का ठेका कंपनियों को दिया जाने लगा। गई भैंस पानी में। सोचने लगे, रिकार्ड कायम होते हैं टूटने के लिए। लेकिन दुनिया में अभी तक किसी देश की सरकार, कोई राजनेता, कोई समाजसेवक और कोई एनजीओ ने, उनके रिकार्ड की बराबरी नहीं की है। यदि चिंता सरकारें, समाजसेवक और एनजीओ करते होते, नेता यदि वाकई में चिंतित होते तो दुनिया की यह हालात ही क्यों होती? चिंतामणि की चिंता बढ़ती जा रही थी। वाकई में, क्या मोदी साहब को गांव की चिंता खाए जा रही है या यह सब दिखावा है?
पत्नी को समझाकर चिंतामणि गांव की चिंता करने चल पड़े। कुछ दूर गए होंगे कि याद आया-कोई पीए जैसे आदमी साथ ले लेते तो अच्छा रहता। गांव वालों को कौन यकीन दिलाएगा कि सभी की चिंताएं दिखावा हैं, उनके जैसा जैसा उनकी कोई चिंता करने वाला दुनिया में पैदा नहीं हुआ। यदि एक बार गांव वालों पर उनका जादू चल गया तो सरकार फेल। एनजीओ फेल। समाजसेवक फेल।
वह चिंता शब्द इसी बीच भूल गए। उन्हें पता नहीं अचानक ‘जादू’ शब्द कैसे याद आ गया। अब वह चिंता की जगह जादू…..जादू रटने लगे थे। लेकिन देश में अकाल की स्थिति हो-फिर बाढ़ की बात करना, दिन को रात बताने जैसा ही है। लेकिन वह समस्या को समझते हैं-चिंता करने का मतलब ही है-समस्या अभी बरकरार है। जैसे कांग्रेस की समस्या भाजपा और भाजपा की समस्या कांग्रेस। समस्याएं तमाम हैं। सबसे बड़ी समस्या मोदी जी के लिए -ग्रामोदय की है। कहीं भी जाते हैं उन्हें गांव नहीं भूलता। जैसे राहुल बाबा को अपनी कामयाबी नहीं भूलती, देश पर किया उनकी पार्टी का उपकार नहीं भूलता। वह मोदी से बहुत साल पहले चिंता करने वाले रहनुमा हैं।
चिंतामणि की चिंता जायज है, उनका गुस्सा करना भी। जैसे ही मोदी को ग्रामोदय की चिंता हुई, वह झट गुस्सा गए। यह तो मोदी की सरासर सरारत है। उनके क्षेत्र में अभी तक किसी का सीधे दखल नहीं था। मोदी साहब ने दखल देकर कानून तोड़ा है। जादू और चिंता शब्द भूल अब मोदी….मोदी रटने लगे। फिर सोचने लगे, चिंता करना उनका यह मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकार है। उनका इसमें कापीराइट है। क्या प्रधानमंत्री हैं इस लिए कानून नहीं मानेंगे? अदालत है। देखूंगा, कैसे मोदीसाहब, मेरे विषय को अपने नाम बता पाते हैं। मुकादमा लड़ना उन्हें भी आता है। करोड़ों मुकादमें ऐसे ही तो नहीं अदालतों में धूल फांक रहे हैं। कर दिया फाइल।
चिंता करने की गांरटी लेना आज किसके बूते ही बात है। आज तो गारंटी किसी चीज की नहीं, यहां तक कि हंसने की भी गारंटी खत्म कर दी गई है। कोई माई का लाल अब हंसाने की वारंटी तो लेता है लेकिन गारंटी नहीं लेता। इस लिए जब चिंता करने की गारंटी का उन्होंने दावा किया तो लोग हंसने लगे। लेकिन वह हंसे नहीं। धीरे से सिसकते हुए बोले,-देखो, मोदी साहब ने मेरे चिंता करने की गांरटी को तोड़ा। मेरा इस पर जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरा पेटंेट है। मोदीजी इतना भी पता नहीं लगा सके तो भला ग्रोमोदय की चिंता में भारत उदय की चिंता क्या करेंगे? कैसे कालेधन की थैली आयात कर पाएंगे? कोई देगा जवाब। नहीं है किसी के पास इसका जवाब। क्यों कि चिंता करने की गारंटी मेरे पास है और जवाब भी केवल मेरे पास है। चिंता करना सब दिखावा है। मिली भगत की सरकार है। ऐसे चलती रहेगी। चिंता करने वाले करते रहेंगे, जनता की चिंतन-शैली कुंद करने का इससे बड़ा हथियार आज तक इज़ाद नहीं हुआ। आप समझ गए होंगे। सरकार चिंता करती है या चिंता करने का दिखावा।

— अखिलेश आर्येन्दु

अखिलेश आर्येंदु

चिंतक, पत्रकार और समाजकर्मी पता-ए-11, त्यागी विहार, नांगलोई, दिल्ली-110041 मो. 9868235056