कविता

ताला….

क्या मैं ज़िंदा हूँ !
मन में आता है यही ख्याल
बार-बार
क्या सांसों का चलना
दिल का धड़कना ही
जिन्दा होना है !
पर उन इच्छाओं, ख्वाइशों
तमन्नाओं का क्या ?
जो उम्र के साथ जवां हुई
इस उम्मीद पर !
एक न एक दिन मिलेंगे
मेरी भी चाहतों को पंख
और छु लेंगे आसमान
लेकिन ये क्या !
बदलते वक़्त ने
ये कैसी तस्वीर दिखाई
अपने जो
साथ देने का वादा किया
आज !
मुँह फेरकर आँखे दिखाने लगे
न जाने !
किस बात का भरास निकाला
और जड़ दिया
मेरे तमाम ख्वाइशों पर ताला
शायद, इसलिए की मैं लड़की हूँ
मेरे सपनों का नहीं कोई मोल !
दिल के किसी कोने में
दफन होकर रह गई मेरी इच्छाएं
अब उम्मीदें भी नहीं बची
दम तोड़ गई सारी सारी उत्तेजनाएं
बस मैं बची हूँ ज़िंदा लाश बनके
क्या मैं जिंदा हूँ ?

*बबली सिन्हा

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