लघुकथा

रक्षाबंधन (लघु कथा)

‘अरे सुनती हो!….. छोटी नहीं आयी क्या राखी बांधने?’

उसे मालूम था, कि उसकी गरीबी के कारण छोटी बहन पिछले कई वर्षों से रक्षाबंधन पर उसे राखी बांधने नहीं आती। वह छोटे के यहाँ जाती है। शुभ महूर्त पर राखी बांधती है। छोटा भी उसको हर राखी पर खूबसूरत, कीमती उपहार और रुपया देकर उसका मान बढ़ाता है।

हर वर्ष की भाँति वह इस वर्ष भी शाम को छोटी के घर गया। राखी बंधवा कर शगुन के रूप में छोटी को पचास, बच्चों को दस-दस और उसकी सास को बीस रुपए देकर लगभग आधी रात को घर वापिस पहुँचा।

एक दिन अचानक ख़बर आयी, छोटी बहुत बीमार है। पत्नी के साथ वह छोटी से मिलने अस्पताल पहुँचा तो मालूम पड़ा कि छोटी की किडनियां काम नहीं कर रही। उसकी जान ख़तरे में है। छोटी को उम्मीद थी कि छोटा भाई कहीं से किडनी का इंतज़ाम कर देगा। वह बहुत रुपए पैसे वाला है। परंतु छोटे ने साफ किया कि वह किडनी का इंतजाम करने में सक्षम नहीं है। छोटी जीने की उम्मीद छोड़ चुकी थी।

उसने पत्नी के विरोध को सहते हुए भी अपनी एक किडनी छोटी को देकर छोटी के जीवन की रक्षा की।

छोटी सोच रही थी छोटे भाई ने तो हर राखी पर साथ के साथ ही राखी की क़ीमत चुका दी थी, शायद इसलिए वह उसका इलाज़ करवाने में अक्षम था। बड़े भाई की गऱीबी के कारण उसने कभी उनका ढंग का सम्मान नहीं किया। फिर भी बड़े भाई ने अपनी किडनी देकर मेरे जीवन की रक्षा कर राखी के बंधन का सही अर्थ समझा दिया।

विजय ‘विभोर’
09/08/2017

विजय 'विभोर'

मूल नाम - विजय बाल्याण मोबाइल 9017121323, 9254121323 e-mail : vibhorvijayji@gmail.com