कविता

डॉलर की भूख

देखे होगें
उसने बड़े – बड़े सपने
अपने हाथों से बुने होगें
छोटे – छोटे ऊनी कपड़े
सहे होगें जिंदगी के लाख लफड़े… |

उंगली पकड़ कर चलना सिखाया होगा
उसकी जिद पूरी करने के वास्ते
अपने जीवनसाथी को कैसे – कैसे मनाया होगा…
खुद गीले में सो कर
अपने लाड़ले को सूखे में सुलाया होगा |

देखे होगें
उसने बड़े – बड़े सपने –
लाल मेरा एक दिन बड़ा होगा
घर में आयेगी बहू…
हाथ बटायेगी बहू
बनेगें बुढ़ापे का सहारा बेटा – बहू

इसीलिए तो उसे पढ़ाया – लिखाया
बहुत काबिल बनाया
माँ का फर्ज निभाया
पर पता नहीं
कहाँ कमी रह गई…
उसकी परवरिश में….?

बेटे ने अपनी भौतिक शिक्षा का फायदा उठाया
खूब धन कमाया
डॉलर की भूख को बढ़ाया
पर अपनों को /
अपनी जननी तक को भुलाया…. |
डॉलर बहुत कमाया ||

तिल – तिल मरने को छोड़ा
कैसे एक कलयुगी बेटे ने
अपनी जननी से रिस्ता तोड़ा
डॉलर की भूख में उससे मुंह मोड़ा
जिसने उसे इतना बड़ा बनाया,
अमरीका पहुँचाया…..

‘ आशा साहनी ‘ की टूट गईं आशा
खून के रिस्तों को कौन दे दिलाशा…
और न जाने कितनी आशाएं हैं
जो कर रही हैं…. इन्तजार
अपने लाड़ले का मुंह देखने का
पर लाड़लों की भूख… डॉलर की भूख
खत्म ही नहीं हो रही
इस भूख ने
उन्हें इंसान से मशीन बना दिया है
उनके हृदयों को पत्थर सा जमा दिया है |

आखिर कब खत्म होगी – ?
डॉलर की भूख…..

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

नाम - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा एम.ए., आई.डी.जी. बाॅम्बे सहित अन्य 5 प्रमाणपत्रीय कोर्स पत्रकारिता- आर्यावर्त केसरी, एकलव्य मानव संदेश सदस्य- मीडिया फोरम आॅफ इंडिया सहित 4 अन्य सामाजिक संगठनों में सदस्य अभिनय- कई क्षेत्रीय फिल्मों व अलबमों में प्रकाशन- दो लघु काव्य पुस्तिकायें व देशभर में हजारों रचनायें प्रकाशित मुख्य आजीविका- कृषि, मजदूरी, कम्यूनिकेशन शाॅप पता- गाँव रिहावली, फतेहाबाद, आगरा-283111