लघुकथा

लघुकथा : ठहरा हुआ स्वप्न

चार पहिया वाहन की आवाज सुन बाहर जाकर देखा रक्षा ने । उसके अम्मा-बाऊजी ही थे । नौकर को गाड़ी से सामान उतारने को कह रक्षा भीगे नयनों से भीतर आ गई । सुबह माँ का फ़ोन आने के बाद सेे ही वह पिछली बातों को याद कर कई बार रो चुकी थी ।“ओफ्फो माँ ! एक ही तो बेटा है तुम्हारा ,वह भी कुँआरा । फिर क्यों इतना सामान ठूँस रखा है रसोई में ?” हाथों से तैयार किये अनाज, मसालों, पापड़, तरह- तरह के अचार , जेम-जैली आदि अनगिनत डिब्बों के ढेर को सुंदर करीने से सजा देख वह अक्सर माँ के रसोई प्रेम पर खीज उठती ।“कितनी बार कहा है तुझसे, भरी रसोई बरकत की निशानी होती है , रहा सवाल बहू का … तो दो चार साल में वह भी आ जायेगी ।”
” बस माँ…” रक्षा हाथ जोड़कर हँस देती ।
समय बीतते देर कहाँ लगती है । बेटा भी ब्याह योग्य हो गया ” बहुत खट लिया रसोई में … बहू आ जाये तो सब उसे सौंप सिर्फ राम राम भजूँगी ।” ऐसा कहते हुए अक़्सर माँ के हाथ अपने घुटनों पर पहुँच जाते और वह उन्हें दबाने लगतीं ।
“तुम भी न माँ , ना जाने कौन से युग में जी रही हो ? आज की लड़की और चौका-चूल्हा ? हूँ…।”
” खबरदार ! जो मेरी बहू के लिए कुछ कहा तो ” प्यार भरी झिड़की दे माँ रक्षा को चुप करा देतीं ।
आज उसी बेटे को इस दुनिया से गए पूरा माह हो गया । एक सड़क दुर्घटना और माँ के सारे स्वप्न खत्म। सुबह ही माँ ने सूचना दे दी थी , अपने आने की । ये कहते हुए,” अब कोई वज़ह शेष नहीं है बेटी मेरे पास, इस गृहस्थी को सजाने-सहजने की। घर का अतिरिक्त सामान जो तुम्हारे काम आएगा, लेकर आ रही हूँ ।” और रक्षा के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही फ़ोन काट दिया था
” बेटी , ये कुछ डिब्बे और क्रॉकरी वगैरह हैं किधर रखवा दूँ ?” माँ की आवाज़ सुन रक्षा की तंद्रा टूटी । देखा नौकर चादरों से बँधी पोटली लेकर पिताजी के साथ भीतर चला आ रहा था । ना चाहते हुए भी वह आँसूओं के सैलाब को रोक नहीं पाई । फुट-फुट कर रोने लगी। उसे लगा एक बार फिर भाई का शव घर के भीतर लाया जा रहा है ।
शशि बंसल, भोपाल 

शशि बंसल

पद - हिन्दी व्याख्याता शिक्षा - बी एस सी , एम ए ( हिन्दी , समाज शास्त्र ), बी एड रूचि - पढ़ना , लिखना , पुराना संगीत सुनना । पति - राजेश बंसल व्यवसाय - ओनर ऑफ़ दवा कंपनी बेटा - एक ( अध्यनरत ) पता - j -61, गोकुलधाम , सेंट्रल जेल के सामने mims रोड , करोंद बायपास, बढ़वाई भोपाल - 462038 मो. - 7697045571

2 thoughts on “लघुकथा : ठहरा हुआ स्वप्न

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा !

  • राज सिंह रघुवंशी

    वाह! शब्द नहीं हैं कुछ कहने को तारीफ में

Comments are closed.