राजनीति

लोकतांत्रिक व्यवस्था या मूकदर्शक?

आज के परिवेश को देखकर यह कहना मुश्किल हो रहा है, कि परिस्थितियां देश की आवाम के साथ खेल खेलने पर उतारू हैं। या राजनीति ही देश में ऐसी हावी हो गईं हैं। जो इस खेल के तमाशबीन बन बैठे हैं। देश एक तरफ आज़ादी का पर्व मनाने में मशगूल हैं। वहीं दूसरे तरफ़ आज़ादी के 70 वर्षों से जो सितम देश की आवाम पर टूट रहा हैं। उससे हमारी राजनीतिक परम्परा के संवाहक नजऱ फेर लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं। फ़िर किस आज़ादी की बात हमारे देश के भीतर होती हैं। इस आज़ादी के जश्न में क्या गोरखपुर के अस्पताल में कालकलवित हुए नौनिहालों के संरक्षक शामिल हो रहें हैं? दिल्ली में सफाईकर्मी जो स्वच्छता की ख़ातिर और अपने परिवार के लिए रोटी का सहारा बनने वाले परिवार जन शामिल हो रहें हैं? उत्तर हमेशा न में ही मिलेगा, क्योंकि आज़ादी के बाद हमारे देश में एक ऐसी समानान्तर व्यवस्था ने जन्म ले लिया। जिसने देश को कई स्तर पर विभाजित करने का काम किया। फ़िर हम कैसी आज़ादी का हिस्सा बने फ़िरते हैं। जब देश में नौनिहालों की जिंदगी का मोल नहीं हैं, जिसने अभी दुनिया भी नहीं देखी थी। सफाईकर्मियों को सुरक्षा के लिए उपकरण नहीं मिल पा रहें हैं। जो काम तो बड़े लोगों की गंदगी साफ़ करने का करते हैं, लेकिन उसी व्यवस्था की अनदेखी उनकी जान लेने को उतारू रहती हैं। ऐसे में आज़ादी के जश्न के क्या निहितार्थ?
          आज़ादी क्या बस यह कुछ अच्छाईयों के गुणगान का केंद्र बनकर रह जाना चाहिए। या फ़िर उन महापुरुषों को श्रद्धांजलि देने का जरिया बनकर रह गया हैं। जिन्होंने देश की आज़ादी में अपने प्राण, घर, परिवार सभी की आहुति दे दी। अगर उनको मात्र श्रद्धांजलि देने का जरिया बनकर ये राष्ट्रीय पर्व रह गए हैं, और उनके विचारों को ताक पर रख दिया गया हैं। फ़िर ऐसे जश्न का कोई औचित्य आज की स्थिति में नहीं बनता हैं। देश आज ग़ुलामी की जंजीरों से भले आज़ाद हैं,लेकिन भ्रष्टाचार का जो दानव पीछे पडा हैं। उससे निज़ात की कोई दवा क्यों नहीं निकल रहीं? आवाम की मौत पर राजनीति साधी जा रही हैं। नौनिहालों की जिंदगी की क़ीमत यह बताकर धत्ता बता दी जाती हैं, कि फला महीने में बच्चे मरते ही ज्यादा हैं। मतलब राजनीति साधने का फ़लसफ़ा ही ऐसे चक्रव्यूह का रचा जा रहा हैं, जिसमें जो राजनीति ने कही वहीं सब सही की कहानी चल रहीं हैं। जनता सार्थकता के मुद्दों पर बात करने की हिमाकत राजनीति के पन्नों से भटक चुकी हैं। कोई कांग्रेस मुक्त भारत के पीछे पड़ा हैं, कोई संघ मुक्त भारत के गीत गा रहा हैं। आज के दौर में गीत सभी को कोई न कोई पसन्द आ रहा हैं, लेक़िन कोई यह गीत गाने को तैयार नहीं, कि असमानता मुक्त भारत, क्षेत्रवाद मुक्त भारत, कुपोषण मुक्त भारत, ग़रीबी मुक्त भारत, रक्तरंजित राजनीति मुक्त भारत। ऐसे उद्धगार भारतीय राजनीति की पाठशाला से कन्नी काटते हुए दिखते हैं। परिवारवाद मुक्त राजनीति, जोड़-तोड़ मुक्त भारत, ऐसी परिकल्पना क्यों नहीं दिखती, क्योंकि राजनीति को सभी दलों ने आज़ादी के बाद अपना धंधा बना लिया हैं। राजनीति अब अर्थनीति का अड्डा बनकर रह गई हैं। आज आज़ादी के 70 बंसत बाद राजनीति में होड़ लग गई हैं, कौन कितना जल्दी अपनी कोठरी भर सकता हैं।
              सभी नियमों-कानूनों को ठेंगा दिखाकर। आज के दौर में महापुरुषों के विचारों पर राजनीति नहीं कि जा रही। उनके नाम को बेचकर अपनी दुकान चलाने का तरीका ईजाद कर लिया गया हैं। लोकतंत्र को ताक पर रखकर अपनी राजनीतिक दुकानदारी चलाने की चाल वर्षों से हमारे देश की राजनीतिक परम्परा हो चली हैं। देश में शिक्षा की स्थिति बद से बद्दतर होती जा रहीं हैं। आज का युवा रोजगार के लिए मोहताज़ हैं। किसान खेतों में मौत का इंतजार कर रहा हैं। देश की आवाम भय, असुरक्षा के जिन्न से पीछा नहीं छुड़ा पा रहीं हैं। फ़िर कैसी और किस बात की आज़ादी और उसका जश्न। शिक्षा और स्वास्थ्य जो मामूली जीवन की नैसर्गिक आवश्यकता हैं, उसके लिए ग़रीब, दूर-दराज ग्रामीण का जीवन नहीं प्राप्त कर पा रहा हैं। फ़िर देश ने आज़ादी के बाद कैसी उन्नति दर्ज की, वह जगजाहिर होती हैं। मौकापरस्त राजनीति की बेला चल रहीं हैं, ग़रीब किसान पीस रहे हैं, आज़ादी का उजाला इन पुतला रूपी आवाम को अगर नही मिल रहा, फ़िर ऐसी आज़ादी की कोई कीमत नहीं।
                   उत्तर प्रदेश हो, या अन्य कोई प्रदेश शिक्षा, स्वास्थ्य की स्थिति नाज़ुक ही हैं। फिर सरकारें किसी भी दल की हो। आवंटित राशि खाते में उपयुक्त मद की पड़ी रह जाती हैं, लेक़िन सुविधाओं की सुध किसी को नहीं होती। आज के वक्त में जब देश आज़ादी का जश्न मना ही रहा हैं, तो दिमाग पर ज़ोर डालकर सोचने की कोशिश की जाए, कि स्वास्थ्य और शिक्षा, और ग़रीब की सुध कब सदन में ली गई? और उस पर अमल हुआ, तो नतीजा सिरफिरा ही निकलता हैं। अब जब एक बार फ़िर देश  की व्यवस्था आज़ादी पर इतरा रहीं हैं, तो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने पुराने वादे को याद करना चाहिए, कि उसने जनता को क्या वचन दिया था। उसके साथ देश के महापुरुषों ने देश की आने वाली राजनीतिक व्यवस्था से क्या उम्मीद रखी थी, क्या उसकी पूर्ति हो पा रहीं हैं। या फ़िर आज़ादी के गीत ही देश में एक तरफ़ गाए जा रहें हैं, दूसरी ओर आज़ादी की हवा में जिंदगियाँ सिसक-सिसक कर खत्म हो रहीं हैं, जैसा हाल में गोरखपुर में नौनिहालों की जिंदगी के साथ हुआ। अगर इस तऱफ आज सार्थक निग़ाह नहीं गई, तो हमारा देश और भविष्य भी आज़ादी की सांस लेते हुए भी तड़प-तड़प कर दम तोड़ देगा। और लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी की तरह मूकदर्शक ही बनी रह सकती हैं।
— महेश तिवारी

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896

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