राजनीति

लोकतंत्र के प्रहरियों को तोड़ना होगा, परम्परागत राजनीति की रवायत

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विस्तार और परिभाषित करने की आज की व्यवस्था में कोई आवश्यकता नहीं हैं। अगर लोकतंत्र सात दशक आज़ादी की आबोहवा में पंख फड़फड़ाने के बाद भी वर्तमान दौर में जातिवाद, परिवारवाद, और तमाम सामाजिक कुरीतियों की साया से आज़ाद नहीं हो सका, तो उसके लिए जिम्मेवार लालफीताशाही भी हैं, क्योंकि अगर देश ने आज़ादी के इन वर्षों के दरमियान भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का कार्य किया। देश को ऐसे समय से भी टकराना पड़ा, जब देश का पहिया रुक से गया। देश अभी भी उसी क्षेत्रीय वाद, स्थानीयता के दर्द को महसूस कर रहा हैं।  देश ऐसा भी नहीं, की आज़ादी के आंगन में मात्र क्षेत्रवाद की बेड़ी में उलझा रहा। उसके दामन को दागदार करने के लिए धार्मिकता की अतिवाद ने भी अपना रंग खूब दिखाया। वहीं धर्म, सम्प्रदायवाद की बांसुरी पुनः देश में अपनी जड़ मजबूत करती दिख रहीं हैं। जिसका रूप तनिक मंदिर, मस्जिद की लड़ाई से बदलकर अल्पसंख्यकवाद, बहुसंख्यकवाद और राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह पर आकर अटक गया हैं।
                आज की नजाकत यह नहीं सोच रहीं, क्या भारत का भला इस राष्ट्रवाद के दिखावे से होगा?  राष्ट्र की उन्नति और विकास किसी भी देश का विश्व स्तर पर इन समस्याओं के बने रहने पर हुआ हो, तो उसका उदाहरण शून्य समझ मे आता हैं, लेक़िन हमारे देश में आज विचारधारा के नाम पर सियासत में भी ख़ूनी खेल चल रहा हैं। उदाहरण के लिए केरल का नाम अब विश्व प्रसिद्धि प्राप्त करने की दिशा में आगे क़दम बढ़ा चुका हैं। विचारधारा और सिद्धांतों को तराजू पर रखकर देखा जाए, तो उसका मोल बस इतना होता हैं, कि किसी व्यक्ति-विशेष के विचारों के अनुरूप देश के साँचे को ढालना होता हैं, लेक़िन विकास के लिए तो विचारधारा तेल लेने चली गई हैं, और अपनी एकछत्र व्यवस्था ज़माने के लिए ख़ूनी रंग दिखा रहीं हैं, क्या इससे देश का भला होगा? देश विकसित राष्ट्र की श्रेणी में क्या आपसी टकराव और वैमनस्यता से होगा, लेक़िन राजनीति अंधी हो चली हैं। उससे भी गूंगी, बहरी और निष्क्रिय सोच का आदी हमारा समाज भी हो रहा हैं, जो आज़ादी की हवा में रहना तो चाहता हैं, लेकिन आज़ादी का असल अर्थ उसे  सात दशक बाद भी पता नहीं चल सका हैं, इसका कारण भी हैं, हमारी व्यवस्था ने कभी चाहा भी नहीं, कि आज़ादी का असल फ़लसफ़ा होता क्या हैं, उसको आवाम जान-समझ सकें।
                अगर ऐसा होता, तो उनकी आज़ादी के बाद आज के दौर में दुकानदारी सातवें आसमान पर है। उस पर आंच आनी स्वाभाविक और निश्चित था, इसलिए देश को धर्म, जाति, क्षेत्र की बिसात पर नचाते रहें। इच्छा हुई तो चुनावों में दारू और क़बाब पर भी नचाया, लेकिन यह अहसास नहीं होने दिया, कि जो परतंत्रता आज़ादी के पूर्व थी, उसकी जड़ अभी भी व्याप्त हैं। बस नए शतरंज के खिलाड़ियों ने उसकी गोटियां बदल दी हैं। आज के वक्त में देश के समक्ष सबसे बड़ी दुश्वारियां पैदा कर रहा हैं, तो वह हैं, धर्म-संप्रदाय की राजनीति का एकसार हो जाना, जो हमारे आज़ादी के पूर्व उत्पन्न हुए राजनीतिक कलाकारों ने अपने राजनीतिक फायदे की जमीन तैयार करने के लिए बीज रोपण किया, जो आज के वक्त में पुष्पित और पल्लवित होकर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक ढांचे को ही धत्ता बता रहा हैं। धर्म-संप्रदाय और राजनीति का संवैधानिक दृष्टि से कोई मेलजोल नहीं है। फ़िर आज धर्म की राजनीति को ज़ोर क्यों दिया जा रहा हैं। धर्म विशेष के लिए पार्टियों की स्थापना पर जोर देना लोकतंत्र की जड़ को काटना हैं। हमारी व्यवस्था को ऐसी मानसिकता को राजनीति के साथ समाज से दूर करने के लिए  सार्थक प्रयास करने होंगे। और अगर धर्म से ही देश के विकास की यात्रा गुज़रती, तो संविधान द्वारा देश को धर्म प्रधान बनाया जाता, न कि पंथनिरपेक्ष।
          संविधान में सभी धर्मों को समान दर्जा दिया गया, लेकिन राजनीतिक दुश्चक्रों में उलझकर इस भावना को मटिया-मेट करने की पूरी कोशिश की गई , जिसका ही परिणाम हैं, कि देश आज भी धर्म और जाति के दंश में सांस लेने को मजबूर है। इसके साथ आज भी देश में धर्म और जाति के नाम पर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ किया जा रहा हैं। हमको और हमारे समाज को अब सोचना होगा, कि कौन सा धर्म सबसे बड़ा है, वह धर्म जिसके नाम पर राजनीतिक हितपूर्ति के नाम पर लोगों का नरसंहार कर दिया जाता हैं। या फ़िर वह मानवतावादी धर्म जिसके लिए भी आदमी अपना सर्वस्व त्याग की भावना रखता है, लेकिन इन दोनोक रंग अलग-अलग है। अब समाज को खुद सोचना होगा, कि उसे किस धर्म को लेकर चलना है, जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था बेच रहीं हैं, या जिससे समाज की भलाई हो सकती है।
           आज देश में राष्ट्रवाद की भावना काफी प्रबल हो रहीं हैं, लेकिन राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने वाले यह क्यों भूल जाते हैं, कि राष्ट्रवाद का सकल अर्थ ही यहीं होता हैं, कि देश के सभी धर्मों के लोगों का कल्याण और न्याय मिले, ऐसी व्यवस्था हो। फ़िर साम्प्रदयिक ताकतों का जमावड़ा क्यों उत्पन्न होने लगता हैं, राष्ट्रवाद का नाम आते ही? सर्वधर्म समभाव वाले देश में किसी एक धर्म को लेकर पिपहरी बजाना उचित नहीं हो सकता। अगर आज देश में साम्प्रदायिक ताकतों का जमावड़ा लगता हैं, फ़िर देश को एक सूत्र में पिरोने की बात अधूरी रह सकती हैं, क्योंकि देश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय हैं, जिन सभी को एकता के धागे में पिरोकर ही राष्ट्रवाद की परिकल्पना को साकार रूप दिया जा सकता हैं। अगर आज देश की राजनीति में  लगभग सभी राजनीतिक दल सांप्रदायिकता, जाति और क्षेत्र विशेष का झंडा बुलंद कर रहें हैं, फ़िर देश कि एकता अखण्डता पर आंच  आना स्वाभाविक है।
        आज देश में राजनीति के नाम पर पाखंड रचने का खेल सभी ओर चल रहा है। अगर देश सांप्रदायिक तत्त्वों  की जद में पीस रहा है, तो उसके वाहक कौन हैं। यह सोलह आने का सवाल है, कि इसके लिए जिम्मेवार कौन है? फ़िर उत्तर, दक्षिण, मध्य किधर भी नजऱ घुमाओ, शोषण कर्ता और शोषित दोंनो मिल जाएंगे। आज देश में व्यक्ति, परिवार केंद्रित राजनीति हावी हो चली है। जिस रवायत को समाज से दूर करना होगा।  देश की नैया इन  व्यक्ति वादी, परिवारवादी राजनीति से  पार नहीं होने वाली । उसके लिए स्वच्छ विचारधारा वाली पार्टियों की सख़्त आवश्यकता हैं। जो दूर-दूर तक परिलक्षित नहीं होती।
            ऐसे में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके  पर देश की प्रगति के लिए भारतीयों से जातिवाद और सांप्रदायिकता के जहर को छोड़ने और एकता को गले लगाने की अपील की। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी जी यह भूल  गए, कि देश मे यह जहर तो आज़ादी से लेकर आजतक देश के हुक्मरानों ने ही किया है। फिर यह अपील तो देश की बिगड़ती राजनीतिक शैली के लिए होना चाहिए। आज़ादी के अवसर पर लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि यह शर्म की बात है कि आजादी के 70वर्षों  के बाद भी जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति जारी है। और यह  कब तक रहेगी। फ़िर अब वक्त की नजाकत को देखते हुए मोदी अपने पार्टी द्वारा शासित राज्यों और देश स्तर पर कानूनी प्रक्रिया द्वारा ऐसे नियम जरूरी करें, कि ये बीमारी देश से दूर हो, लेकिन इस अपील के सार्थक परिणाम भविष्य के गर्भ में ही है, क्योंकि आजतक स्वच्छ संसद के लिए ठोस क़दम नहीं दिखा है। मोदी की बातें बताती है, कि समाज का चीरहरण धर्म, जाति से बहुत हो चुका हैं, फ़िर देश से ये रवायत जो सामाजिक बुराई की जड़ है, उसको 10 वर्ष के लिए नहीं हमेशा के लिए तिलांजलि देना होगा। उसके लिए सकारात्मक राजनीतिक दृष्टिकोण और मनोबल की आवश्यकता है। जिससे  देश की राजनीतिक परिपाटी को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है, लेक़िन जनता और देश की भलाई के लिए यह प्रयास होना चाहिए।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896