सामाजिक

ग़रीब की थाली पर वोटबैंक की सियासत

राजनीति और जनता का प्रत्यक्ष मिलन अब मात्र चुनावी हल-चल के वक़्त दिखता है, जब उसके प्रत्याशी जनता रूपी मत को अपना भगवान और उसके साथ तमाम वे रिश्ते- नाते रचने की कोशिश करती है, जिसके जोड़ का धागा बहुत ही नाज़ुक होता है, और उसको बनाया भी इसलिए जाता है, कि क्षणिक उपयोग हो सके। आज देश में गरीबों की थाली के साथ यह खेल व्यापक स्तर पर खेला जा रहा है। तो ये बातें लिखनी पड़ रहीं है। आज के वैश्विक परिवेश में जब आधुनिकता का क्रेज़ चहुँओर छाया है, उस परिवेश में अगर आज गांव, गरीब, किसान, सभी उपेक्षित हैं। तो उसकी उपेक्षित होने की रूपरेखा में महती योगदान किसका है। उत्तर सब के समीप है, देने की हिमाक़त किसी दल और राजनीतिक विचारधारा जो प्रपंच रचने वाला है, देने को तैयार नहीं है। आज देश में जो राजनीतिक दल करोड़ों एक छड़ में गटक जाते हैं, उनके द्वारा गठित कमेटी गरीबीयत का मज़ाक और खिल्ली उड़ाती दिखती हैं। 32 और 26 रुपये तय करने वाले किस मुँह से अपने लिए वेतन में वृद्धि की सिफारिश कर लेते हैं, यह बात आज तक हमारे पल्ले नहीं पड़ी।

अगर एक शहरी गरीब 30- 40 रुपये दिन कमाकर अमीर की श्रेणी में मान लिया जाता है, फिर क्या कारण है, कि उसी स्तर से संसद तक पहुँचते ही विधायक या सांसद को हज़ारों रुपये की भूख लग जाती है। इसका कारण देश में क्षीण होती सामाजिक विकास और सरोकारिता का विचार है, उसके साथ स्वार्थ, अपने हित और महत्वाकांक्षाओं की बढ़ती राजनीतिक प्रवृत्ति है। देश का रहनुमा तो अपने बच्चों के लिए सितारा होटल देखता है, वहीं ग़रीब बच्चों की उसे सुध नहीं रहती, कि उसे सुखी रोटी भी नसीब हो रहीं हैं, या नहीं। यह रवायत और दो धड़ों वाला विचार स्वास्थ्य लोकतंत्र में सही नहीं है। अगर जिस जनता ने अर्स से फर्स पर लाया है, तो उसको नहीं भूलना चाहिए, लेकिन भूलने की यह परिपाटी तो आज काफ़ी दूरी तय कर चुकी है। आज़ादी के बाद से ही राजनीति ने आवाम की आवाज को सुनना बंद कर दिया, तभी तो कागजों में जनहितकारी कार्य होते रहें, और जनता उपेक्षा की शिकार होती रहीं। गरीबी हटाओ बहुत पुरानी बात है, देश से हटी, नहीं। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की बात की थी, राजनीतिक विचारधारा की कलुषित मनःस्थिति से वह विचार आज पीड़ित दिख रहा है। आज़ादी के बाद कांग्रेस उनके विचारों से असहजता का अनुभव करने लगी, और उनके विचारों को तिलांजलि देना उचित समझा।

आज के युग में जब न्यू इंडिया, शाइनिंग इंडिया, डिजिटल इंडिया पर जोर है, फिर उड़ीसा के तीस जिलों में 5 रुपए में भोजन, तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन पर 10 रुपये में पेट भर खाना, राजस्थान में 2016 में पांच रुपए में भरपेट भोजन के लिए शुरू की गई अन्नपूर्णा रसोई योजना, और आंध्रप्रदेश में एन टी आर अन्ना केंटीन , मध्यप्रदेश के 49 जिलों में 5 रुपए में भरपेट भोजन, दिल्ली में एलएनजेपी अस्पताल में सस्ता भोजन उपलब्ध कराने के लिए आम आदमी केंटीन की शुरुआत की गई। इसके इतर अभी हाल में बंगलुरू से शुरू की गई इन्द्रा कैंटीन के क्या अर्थ निकाले, क्या यही डिजिटल इंडिया का भविष्य है? शाइनिंग इंडिया का यहीं चमकता कल है? यही न्यू इंडिया जो 2022 तक आने वाला है, उसकी वर्तमान स्थिति बयां कर रहीं है? या फ़िर सत्ता के प्यासे जनता के पेट से अपनी राजनीतिक बिसात साधने का सलीका ढूढ लिए है? जिस कांग्रेस ने पंजाब में वादा किया था , गरीबों को सस्ता खाने खिलाने का , वह पंजाब में तो सत्ता मिलते ही मुकर गई। तो क्या 5 – 10 रुपए में खाना उपलब्ध कराने को सरकारी मज़ाक समझे? या फ़िर गरीबों की थाली पर भी वोटबैंक खिंचने की कोशिश? क्योंकि जिस देश मे आज भी 25 फ़ीसद आबादी भूखे पेट सोती हैं, और भूखे देशों की कतार में 118 देशों में 97 वें स्थान पर है, फ़िर फ़लसफ़ा तो यहीं निकलता है, कि गरीबी को दूर न जाने का षड्यंत्र भी राजनीति ने ही रचा, क्योंकि आज जो ग़रीबो की थाली के नाम पर वोट बैंक की राजनीति खेली जा रही है, वह बंद हो जाती। आज लोकतंत्र ऐसी रवायत के कारण विश्व स्तर पर अपमानित और लज्जित हो रहा है। इसलिए अब इन रवायत को त्याग कर गरीबी को दूर करने का सार्थक प्रयास होना चाहिए। इसके साथ अगर देश में जनता की स्थिति सुदृढ़ होगी, तो देश वैसे ही शाइनिंग करेगा, और न्यू इंडिया अपने आप आवाम के जीवन में उतर जाएगा, इसलिए समाज मे व्याप्त समस्या को दूर करने की जहमत दिखाई जाए, फ़िर मत के लिए वोटबैंक की राजनीति भी नहीं बिछानी पड़ेंगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896