उपन्यास अंश

इंसानियत – एक धर्म (भाग – छब्बीसवाँ )

जब शबनम की नींद खुली , दिन काफी चढ़ चुका था । पलंग के सामने ही दीवार पर लगी घड़ी पर उसकी नजर गयी । सुबह के सात बज रहे थे । सूर्य की सुनहरी किरणें खिड़की की जाली से छनकर सीधे उसके चेहरे पर नृत्य कर रही थीं । आंखों में भरपूर नींद होने के बावजूद उसे उठना ही पड़ा था ।
दरअसल रात उसे नींद ही नहीं आयी थी । ढेर सारे विचार उसके कानों में शोर मचा रहे थे और करवटें बदलते ही उसकी पूरी रात गुजर गई थी । तकती आंखों से छत को घूरते घूरते वह कब सो गई वह खुद भी नहीं समझ पायी ।
मुनीर का ध्यान आते ही हड़बड़ा कर पलंग से उतरी और दालान की तरफ भागी जहां मुनीर सोया हुआ था लेकिन यह क्या ?
कमरे में कोई न था । बिस्तर समेटा हुआ और मुख्य दरवाजा भिड़ा हुआ था ।
शबनम के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिख रही थीं । किसी अनहोनी की आशंका से उसका दिल जोरों से धड़क उठा । घबरा कर अंदर कमरे में भागी और झपट कर मोबाइल उठाया । मुनीर का नंबर घुमाने के बाद मोबाइल में से आ रहा जवाब सुनकर वह और परेशान हो उठी । कई बार संपर्क करने की कोशिश करने के बाद भी जवाब एक ही था ‘ the number you have dialed is switched off . try after some time . ‘
झुंझलाकर वह वहीं बिस्तर पर निढाल सी बैठ गयी । उसका दिल अपनी औकात भुलकर लगातार तेजी से धड़क रहा था । तभी आबिद ने आंखें मसलते हुए दालान में प्रवेश किया ” क्या हुआ अम्मी ? आप यहां क्यों बैठी हो ? ”
” कुछ नहीं बेटा ! तुम्हारे जगने का ही इंतजार कर रही थी । अब फटाफट फारिग हो लो और तैयार हो जाओ । मैं तब तक नाश्ता बना देती हूं । ” कहते हुए शबनम उठ खड़ी हुई और आबिद के बालों में स्नेह से उंगली घुमाते हुए उसे समझाकर रसोई में चली गयी । नन्हा जावेद जो अभी पांच साल का था अभी तक सोया हुआ था ।
ठीक उसी समय मुनीर अपने गांव से लगभग सात आठ किलोमीटर दुर प्रतापगढ़ जानेवाली उसी सड़क पर खड़ा था जहां रात होनेवाले हादसे में वह भी सहभागी था । यह और बात है कि वह घटना स्थल से थोड़ी दूर प्रताप गढ़ की दिशा में जानेवाली किसी सवारी की ताक में था ।
इस समय उसका हुलिया पूरी तरह बदला हुआ था ।

सुबह अलार्म की पहली आवाज के साथ ही उसकी नींद खुल गयी थी । नींद खुलने के साथ ही उसने तेजी से अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था । कमरे में ही टंगे हुए अपने एक पुराने कुर्ते पायजामे को उसने झपटकर उठा लिया और पहन लिया । पुलिस की वर्दी हाथों में लिए हुए ही उसने शबनम के कमरे की तरफ देखा । वहां छाई निस्तब्धता से उसका मनोबल और बढ़ा । कमरे में ही उसे एक प्लास्टिक का थैला मिल गया जिसमें उसने अपनी वर्दी ठूंस दी । अपना रास्ता अब उसे बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा था । समय न गंवाते हुए उसने फटाफट कमरे से बाहर कदम रखा और चोर नजरों से चारों तरफ देखा था । बिना किसी आहट के उसने धीरे से दरवाजा भेड़ दिया और गांव से बाहर की तरफ जानेवाले रास्ते से आगे बढ़ गया । अभी भोर का समय था । गांव में कुछ लोग जाग चुके थे लेकिन धुंधलके का फायदा उठाते हुए मुनीर सबसे बचता हुआ गांव के बाहर खेतों के बीच बनी पगडंडी पर चलने लगा जो इस गांव को शहर जानेवाली सड़क से जोड़ती थी । खेतों के बीच चलते हुए पगडंडी से दुर फसलों के बीच शौच के लिए बैठे लोग नजर आ रहे थे । सरकार के इतने प्रयासों के बावजूद अभी इस गांव में तस्वीर जस की तस थी । सुहाने मौसम का लुत्फ उठाते मुनीर अपनी राह पर चलता रहा । गांव से बाहर कुछ दुर आ जाने के बाद मुनीर ने हाथ में थमा हुआ कपड़ों का थैला जिसमें उसकी वर्दी रखी हुई थी उसमें कुछ पत्थर भर कर उसे खेतों के बीच बने उस छोटे से खड्डे में फेंक दिया जिसमें बरसाती पानी जमा होकर छोटे से तालाब का रूप ले लिया था । अपने मोबाइल को जेब से निकालकर मुनीर ने उसमें से सिम निकालकर उसे भी पानी में फेंक दिया । पत्थर की वजह से उसकी वर्दी वाला थैला धीरे धीरे पानी में डूब गया ।
थैले को डूबते देखकर मुनीर को बड़ी राहत महसूस हुई । अब वह अपनी आगे की योजना के मुताबिक सड़क पर खड़ा किसी सवारी का इंतजार कर रहा था । पुलिस की नौकरी में रहते हुए मुनीर को पुलिस के हर संभावित कदम व कार्यशैली की अच्छी जानकारी थी । वह जानता था कि उसकी खोज करने के क्रम में पुलिस अंततः मोबाइल नेटवर्क द्वारा उसे ट्रेस करने की कोशिश करेगी । उसके नंबर को ट्रेस करती हूई पुलिस उसके घर तक पहुंचेगी जहां से उन्हें यह पता चलेगा कि वह बड़ेसवेरे ही घर से वापस चला गया था । मोबाइल से मिल रहे संकेतों के मुताबिक उसकी बीवी की बात सही साबित होगी और उसे ज्यादा परेशान नहीं किया जाएगा । आगे की जांच में इस लोकेशन पर आकर फोन स्विच ऑफ होने से भी पुलिस निष्कर्ष निकाल लेगी कि मैं यहां से आगे गायब हुआ हूँ । लेकिन कहाँ यह वह तत्काल पता नहीं कर पायेगी । और मुझे इतना ही तो वक्त चाहिए ।
उसे अच्छी तरह पता था कि वह ज्यादा देर तक छिपा नहीं रह पाएगा लेकिन फिलहाल वह कानून के हाथों में नहीं पड़ना चाहता था । इसकी वजह थी कि वह अभी हादसे की गंभीरता से अनजान था । वह यहां से सुरक्षित किसी दूर जगह पर रहकर पहले घटना की वास्तविकता से रूबरू होना चाहता था और फिर उसके मुताबिक अगला कदम उठाना चाहता था । उसके अनुसार जिस तरह वह आदमी एक ही वार से ढेर हो गया था उसके बचने की उम्मीद बहुत कम ही थी । और अगर खुशकिस्मती से वह बच गया होगा तब जरूर उसकी मुश्किलें थोड़ी कम हो सकती हैं । उसके ढेर होने की सूरत में उसे बाहर रहकर खुद ही अपनी अग्रिम जमानत का प्रबंध करना था क्योंकि यदि कहीं वह पुलिस के हत्थे चढ़ गया तो उसकी जमानत का प्रबंध कौन करेगा ? उसकी देहाती बीवी इन सब कामों से बिल्कुल भी अनजान थी । कोई रिश्तेदार भी उसे इस लायक नजर नहीं आ रहा था जो उसकी इस मुसीबत की घड़ी में कोई मदद कर सके ।
दिमाग में घूम रहे विचारों को झटकते हुए मुनीर रामनगर की तरफ से आ रही एक बस को देख कर अभी उसे रुकने का ईशारा करनेवाला ही था कि अचानक ही ठिठक कर वहीं रुक गया । नजदीक आती बस को उसने समय रहते पहचान लिया था । हालांकि उसने अपना चेहरा गमछे से छिपाया हुआ था फिर भी उस बस का खलासी उसे पहचान जाता क्योंकि मुनीर अक्सर ही इस बस में अपनी वर्दी का रौब झाड़कर मुफ्त में सफर करता था । बस निजी मालिक की होने की वजह से खलासी उसे कुछ नहीं बोल सकता था । लेकिन आज वह किसी की नजर में नहीं आना चाहता था । वह खलासी उसे पहचानकर उसका सारा खेल खराब कर सकता था । एहतियातन बस के आते ही मुनीर मुंह फेरकर निकट खेतों में लघुशंका के लिए खड़ा होने का उपक्रम करने लगा । बस रुकी और फिर आगे बढ़ गयी । संयोगवश उस बस के पीछे ही राज्य परिवहन की सरकारी बस भी आ रही थी । मुनीर तत्काल ही सड़क के मध्य में आ गया और उस बस को रुकने का ईशारा किया । बस के रुकते ही मुनीर बस में सवार हो गया । बस एक झटके से शुरू होकर धूल उड़ाती हुई तेजी से प्रतापगढ़ की तरफ बढ़ने लगी ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

2 thoughts on “इंसानियत – एक धर्म (भाग – छब्बीसवाँ )

  • लीला तिवानी

    प्रिय राजकुमार भाई जी, एक अपराधी के मनोभावों का जीवंत चित्रण और एक भारतीय नारी की विशेषताओं से सराबोर शबनम का सजीव चित्रण मनोहारी लगा. गुनाह चैन नहीं लेने देता. एक आम अपराधी की तरह मुनीर सजा से बचने की कोशिश में सजा से भी बड़ी सजा भुगत रहा है. अत्यंत रोचकता से भरपूर एक और लाजवाब कड़ी ने उत्सुकता को और अधिक बढ़ा दिया. इंसानियत के प्रति जागरुक करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! आपने बहुत सुंदर व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया लिखी है जिसके लिए में आपका हृदय से आभारी हूँ । हमेशा की तरह यह कड़ी भी आपको अच्छी लगी यह जानकर भी मन हर्षित हुआ । जिस तरह एक सच को छिपाने के लिए सैकड़ों झूठ बोलने पड़ते हैं एक गुनाहगार को सजा से बचने के लिए उस सजा से भी बड़ी सजा भुगतनी पड़ती है । मुनीर के साथ भी यही सब हो रहा है । बेहद सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहहवर्धन के लिए आपका धन्यवाद ।

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