सामाजिक

लेख– वर्तमान सिनेमा का बदलता ट्रेंड

साहित्य समाज का दर्पण होता है। फिल्में हमारे समाज के बीते हुए कल और वर्तमान से रूबरू कराती है। आज फिल्मों का ट्रेन्ड बदल गया है। सार्थक सिनेमा की जगह बाजारू सिनेमा अपनी पैठ बनाता जा रहा है, जिसके कारण फिल्में समाज और सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहीं हैं। फिल्में शुरू से समाज को आईना दिखाने का काम करती आई हैं, लेकिन जब से बाज़ार ने सिनेमा को लेकर करवट ली है। समाज फिल्मों के नकारात्मक हिस्से से ज्यादा प्रभावित होता दिख रहा है। इसके कारण भी है, फिल्में आज मात्र कमाई का जरिया बनने के लिए समाज के समक्ष कुछ भी परोसने को तैयार है, तो उसका कारण उस तरफ़ लोगों का बढ़ता झुकाव है। जब दर्शक वर्ग जिस तऱफ आकर्षित होगा, निर्माता भी उसी अनुरूप दिखाने की कोशिश करेगा। दुसरा कारण फिल्मों पर बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप भी है, जिससे यर्थाथवादी सिनेमा आज दूर की गोटी साबित होता जा रहा है। आज की सरकारें नहीं चाहती कि समाज और आवाम के समकक्ष कोई ऐसी सार्थक सिनेमा आएं, जो सरकार के लिए ही समस्या खडी कर दे, इसलिए अगर फ़िल्म निर्माताओं ने अपना रास्ते से अलग होकर नया रास्ता अपनाया है, तो दोषी व्यवस्था, समाज  दोंनो भी है।
               मात्र निर्माता को ही दोषी नहीं करार दिया जा सकता हैं। आज सिनेमा में महिलाओं को बाजारू सामान की तर्ज़ पर परोसा जा रहा है, लव सेक्स, और धोखा का स्वांग रचा जा रहा है, पैसा कमाने के लिए इस रवायत को कतई सही नही ठहराया जा सकता है। जब फिल्में ही महिलाओं के प्रति विकृति सोच को पैदा कर रहीं हैं, फ़िर समाज का प्रभावित होना लाजिमी है। ऐसे कृत्यों पर सरकारी तंत्र को लगाम लगाने की कोशिश करनी चाहिए। आज फिल्में पैसे की जाल में फंस कर समाज में फूहड़ता का मक्कड़जाल फैला रहीं है, और महिलाओं को अधिकतर फिल्मों में भोग-विलास की वस्तु के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, फ़िर समाज में महिलाओं की दशा सुधारने का ढोंग क्यों रचा जाता है। समाज पढ़ी हुई चीजों से अधिक प्रभावित दृश्य माध्यम से होता है, फ़िर पहले सुधार की आवश्यकता फिल्मों के विचार में होना चाहिए, जो व्यवसाय का धंधा फ़िल्म को बनाकर नंगई का नंगा नाच प्रदर्शित किया जा रहा है।
                 पहलाज निहलानी ने इस्तीफे के बाद जो इल्जाम फिल्मों को लेकर राजनीति पर लगाएं है, उससे राजनीति का काला स्याह उजागर होता है। अगर कला और कल्पनाशीलता को राजनीतिक हथियार बना लिया गया, फ़िर कला ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाएगा। इसके साथ अगर किस फ़िल्म को पास करना है, किस को रोकना है, हर जगह हस्तक्षेप राजनीति का होगा, तो यह धारा सही नहीं मानी जा सकती है। पहलाज निहलानी ने जो आरोप लगाया है, कि राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें कला के क्षेत्र में खुल कर कार्य करने की प्रवृत्ति से काम नहीं करने दिया, तो आज के समय मे यह बात निर्विरोध सत्य है, कि सत्ता अपने निजी हित के लिए हर क्षेत्र में दखलंदाजी देता रहा है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल भावना से छींटाकशी करने से कम नहीं है। पहलाज निहलानी के मुताबिक सरकार और अन्य राजनीतिक हैसियतदार ने उड़ता पंजाब और बजरंगी भाईजान जैसी फिल्मों पर रोक लगाने का हुक़्म दिया, क्योंकि उससे राजनीतिक लाभ फ़िसल सकते थे, लेकिन हर सिक्के की दो कहानी होती है, चित्त और पट्ट। आज के परिवेश में कोई भी क्षेत्र हो, अगर उसमें दोनों धड़े एक सार होने लगे , तो वास्तविकता और सच्चाई प्रभावित हो जाती है।
           आज वहीं दौर चल रहा है, बात किसी भी क्षेत्र की हो, सभी एक दूसरे की चिलम भरने में लगे हैं, अगर नुकसान और बुरा हो रहा है, तो वह जिंदा जनतंत्र की सच्ची आवाज़ वाली देश की आवाम है। उड़ता पंजाब में पंजाब की दुःखती रग ड्र्ग्स का ज़िक्र था, इसलिए राजनीतिक व्यवस्था ने उसको रोकने का प्रयास की । जिससे उसका हित न प्रभावित हो। आज जब कला राजनीतिक कठपुतली बनकर राजनीतिक प्रचार और विचारधारा को परोसने का विकल्प बनता जा रहा है, तो यह स्थिति भी समाज के लिए खतरनाक है। राजनीति  विषय पर फ़िल्म बनना ग़लत नहीं, क्योंकि यह बहस का दायरा बढ़ाने का काम करती है, लेकिन किसी विचारधारा की पिछलग्गू बन जाए, तो यह कला का गला घोंटने से कम नहीं है। आज बनने वाली कुछ फिल्मों की कहानी को छोड़ दिया जाए, तो अधिकतर राजनीतिक चिलम भरने और बाज़ारवाद की संकल्पना के अनुरूप पैसे के लिए बन रहीं हैं, जिसमें जनता के दुख, दर्द, आवाज़, और समस्याओं का ज़िक्र कहीं नहीं है। सिनेमा का यह उद्देश्य नहीं होना चाहिए था। फ़िल्म को समाज से जोड़कर बनाना चाहिए, कि इससे समाज को क्या मिल रहा है, इसके साथ राजनीति के लोगों को भी अच्छी फिल्मों में अपना अक्स ढूढ़ना चाहिए, न कि अपने अनुरूप फ़िल्म की विचारधारा तैयार करवानी चाहिए। और इसके साथ समाज को भी तय करना होगा, उनका भला क्या देखने में है। तभी यह पता चलेगा, कि समाज ने कितनी दूरी तय की, है, औऱ कितना चलना है, इसके अलावा तभी बिगड़ते सिनेमा का विचार भी कुछ शुद्ध हो सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896