भाषा-साहित्य

हिंदी : संस्कृति, समाज और संस्कार की भाषा

देश में मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और राज भाषा का सवाल आजादी के बाद से ही उठता रहा है। मातृभाषा को लेकर तो एक अलग ही नजरिया देश के महान् महापुरुषों, समाज सुधारकों और साहित्य सेवियों का रहा है। वह चाहे गुजरात के महर्षि दयानंद या महात्मा गांधी हों, महाराष्ट्र के गोपाल कृष्ण गोखले व तिलक रहे हों, बंगाल के टैगोर या बंकिम चंद चटर्जी रहे हों या उड़ीसा के नेता सुभाष रहे हों। सभी ने एक स्वर में हिंदी को राष्ट्रभाषा, शिक्षा और संस्कार तथा सम्पर्क की भाषा के रूप में मान्यता दी। इस लिए अविभाजित भारत में सभी ने हिंदी को स्वीकार किया और उसे सीखने और प्रयोग में लाने के लिए आगे आए। हिंदी पर सवाल तो स्वतंत्रता के उपरान्त विशेषकर तमिलनाडु में राजनीतिक और अन्य कुछ कारणों से उठाया गया और इसे एक बड़ा मुद्दा बना दिया गया, जो आज भी कभी-कभी देखने में आता है।
आज भाषा हमारे सामने कई रूपों में आती है। इनमें संस्कृति से भाषा का संबंध, समाज से भाषा का संबंध, संस्कारों से भाषा का संबंध, शिक्षा से भाषा का संबंध, विज्ञान और धर्म से भाषा का संबंध प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त, ऐसे अनेक प्रश्न मातृ भाषा को शिक्षा और संस्कार की भाषा सेे लेकर भी हमारे सामने आते रहे हैं। लेकिन पुरातन भाषा और सबसे वैज्ञानिक भाषा के प्रश्न पर सभी इस बात पर सहमत रहे हैं कि संस्कृत भाषा भारत की अनेक भाषाओं की जननी है।(भारत में अनेक भाषाविद् तो संस्कृत को विश्व की अनेक भाषाओं की जननी मानते रहे हैं) क्योंकि यह एक वैज्ञानिक और शास्त्रीय भाषा ही नहीं रही है बल्कि यह अनेक भाषाओं को आगे चलना और विकास करना भी सिखाया। आज संस्कृत भारत में सबसे उपेक्षित भाषाओं में से एक है।
वैसे भाषा से संबंधित अनेक प्रश्न हमारे सामने आते रहे हैं लेकिन इसमंे से महत्त्वपूर्ण सवाल यह रहा है कि बच्चों को किस भाषा में शिक्षा और संस्कार दिए जाए, जिससे उनका चहुमुखी विकास हो सके। देखा जाए तो यह बहुत ही महत्त्व का प्रश्न है। महात्मा गांधी बच्चों की मातृभाषा के सवाल पर कहते हैं-‘‘ मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़ दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं। मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाए दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं। इसलिए, मैं इस चीज को पहले दर्जे का राष्ट्रीय संकट मानता हूं।’’
गांधी जी आजादी के पहले और बाद में भी मातृभाषा के सवाल पर बहुत संवेदित थे। उनके संवेदित होने की वजह यही थी कि मातृभाषा का मुद्दा सबसे महत्त्व का होते हुए भी राजनेताअें के लिए यह कोई विशेष मुद्दा नहीं है। आजादी के 66 वर्षों के बाद हम गांधी की संवेदना को मातृभाषा के सवाल पर बाखूबी समझ सकते हैं, यदि समझना चाहेे तो। बात यहां हम हिंदी, हिंदी का भारतीय संस्कृति, भारतीय समाज और संस्कार से करने के पहले, हम उन बातों का जान-समझ लें जो इनसे सीधे जुड़ी हुई हैं।
संस्कृत शब्द को एक भाषा के तौर पर हम अधिक समझते हैं। लेकिन ‘संस्कृत’ शब्द का मूलार्थ समझ लेने के बाद इस शब्द की अर्थवत्ता और संपूर्णता को अधिक सहज रूप से समझ सकते हैं। संस्कृत शब्द का मायने होता है…अच्छी कृति, संशोधित कृति या रचना, या अच्छी रचना और वैज्ञानिक भाषा। इसी प्रकार संस्कृति शब्द का अर्थ है…मानव मात्र का उसके हाव-भाव रहन-सहन, वेश-भूषा, चाल-चलन । इसी प्रकार संस्कार का अर्थ है किसी तत्त्व या प्राणी का शुद्ध करना या प्रक्रियों के तहत संशोधित करना। हिंदी भाषा के संदर्भ में चारों शब्द अपना विशेष अर्थ रखते हैं। हिंदी एक संस्कृत भाषा है। हिंदी एक संस्कृतिवान् भाषा है। हिंदी एक सभ्य समाज की भाषा है और हिंदी एक संस्कार की भाषा है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हिंदी में वह सभी गुण मौजूद हैं जो एक श्रेष्ठ भाषा, एक संस्कृतिवान भाषा, एक सभ्य समाज की भाषा और एक संस्कार देने वाली भाषा में होने चाहिए। इस लिए जब हम विश्व स्तर पर हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ, भारत की राष्ट्र भाषा, पूरे भारतीय समाज की सम्पर्क भाषा या भविष्य की विश्व भाषा और एक महान् संस्कार देने वाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने की बात करते हैं तो हिंदी के इन्हीं गुणों के कारण ही करते हैं। आज हिंदी को इन्हीं संदर्भों में देखने की आवश्यकता है। लेकिन इस बहस से पहले हम यह जरूर समझ लें कि हम हिंदी की बात कर रहें हैं, हिंदी का सर्वनाश करने वाली तथाकथित भाषा- हिंग्लिश या हिंग्रेजी की नहीं। भारत को छोड़कर को दूसरे देशों में जहां भारतीय हैं या जो विदेशी जन हिंदी से प्रेम करने के कारण हिंदी को अपने जीवन-व्यवहार की भाषा बनाए हुए हैं वे तो हिंदी बोलते हैं और हिंदी में लिखते हैं , लेकिन भारत में जहां हिंदी जनमी, पली-पढ़ी और प्रचारित-प्रसारित हुई आज हिंदी के नाम पर हिंग्रेजी का प्रचलन बहुत तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। इस लिए हिंदी की ही बात करते वक्त यह सावधानी जरूर बरतें कि हिंग्रेजी को ही हिंदी मानकर हम हिंदी की वकालत न करें। क्यों कि संस्कृत, संस्कृति, समाज और संस्कार की भाषा हिंदी है न कि हिंग्रेजी।
आज हिंदी को अपने उद्भव स्थान पर ही अपने वजूद, अपने शुद्ध स्वरूप, अपने फैलाव और अपने जींवतता के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। वह एक अच्छी संस्कृतवान, संस्कृतिवान, सभ्य समाज और संस्कार की भाषा होते हुए भी जहां उसे अंगे्रजी से बहुत बड़ी चुनौती मिल रही है वहीं पर उसे तथाकथित नई भाषा हिंग्रेजी से भी चुनौती मिल रही है। अंगे्रजी से चुनौती तो उसे गुलामी के दिनों में भी मिलती थी लेकिन आज वह चुनौती एक बहुत वड़ी समस्या बन गई है। लेकिन पिछले 25 वर्षों में भारतीय समाज में एक विलावटी भाषा ‘हिंग्रेजी’ से हिंदी को अपने वजूद को लेकर ही संघर्ष करना पड़ रहा है। हिंग्रेजी वह तथाकथित भाषा है जिसका न तो कोई व्याकरण है और न तो कोई उसकी लिपि ही है। इसमें दो चार शब्द हिंदी के होते हें बाकी शब्द अंगे्रजी के । यह एक विज्ञापनी भाषा, भारत के उच्च मध्य, मध्य और निम्न मध्य समाज की नई भाषा के रूप में विकसित हो रही है। और लोग कहते हैं, यह ही हिंदी है? ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी भी मिलावटी भाषा में संस्कृत, संस्कृति, समाज और संस्कार देने की सामथ्र्य नहीं हो सकती है। भाषाविदों का कहना है कि किसी भी भाषा में मिलावट का मतलब है, उस भाषा में उसकी अभिव्यक्ति, उसके सामथ्र्य, उसकी वैज्ञानिकता, भाषाई स्वरूपता, उसकी आत्मा और संस्कार देने की समर्थ का न होना। दैनिक जीवन में हम किसी भी चीज में मिलावट को कभी अच्छा नहीं मानते हैं । तो सवाल यह है कि फिर हिंदी में मिलावट को क्यों लगातार स्वीकार करते जा रहे हैं? हिंदी सभी भाषाओं की ‘सेतु’ की भाषा है लेकिन हिंग्रेजी में वह सामथ्र्य नहीं है। इस बात को गहराई से समझने की आवश्यकता है। जब हम हिंदी की बात करें तो हिंदी की करें न कि करें हिंदी की बात और बोले हिंग्रेजी। यह हिंदी के लिए ही नहीं हिंदी भाषियों के लिए कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता है। गांधी जी ने एक बार कहा था… हिंदी सभी भारतीय भाषाओं की ही नहीं सभी भारतीयों के लिए पुल का काम करती है। ऐसी भाषा को हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को अपने व्यवहार की भाषा बना लेनी चाहिए। सवाल यह हेै, क्या स्वतंत्रता के 66 वर्षों के बाद यह हो पाया? नहीं हो पाया। सवाल उठता है क्यों नहीं हो पाया? इसका सीधा सा जवाब है कि हमने हिंदी को हमेशा दोयम दर्जें की भाषा , तो कभी गंवारों की भाषा, तो कभी पिछड़ों की भाषा तो कभी साधारण भाषा मानकर इसकी उपेक्षा करते रहे और अंगे्रजी को विशेष भाषा और उच्च समाज और सभ्य समाज की भाषा मानकर इसको हर जगह प्रतिष्ठित करते रहें। मतलब, हिंदी की दुर्दशा के लिए विदेशी नहीं बल्कि हम हिंदी वाले ही जिम्मेदार हैं।
देश में 1993 में भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को विकास के माॅडल को आधार बनाया गया अैार कथित विकास के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत के विशाल बाजार को खोल दिया गया। जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अधिक प्रतिष्ठा दी गई वे उन देशों की थीं जहां अंगे्रजी ही वहां की राष्ट्रभाषा, राजभाषा और संस्कार की भाषा है। तब से लेकर पिछले इन बीस वर्षों में देश में भाषा के सवाल को हमेशा के लिए दफन कर दिया गया, क्योंकि यह माना गया कि देश का विकास हिंदी से नहीं, लोगों को रोजगार हिंदी से नहीं, सभ्यता और संस्कार हिंदी से नहीं बल्कि अंगे्रजी या उसकी सहोदर बहन हिंग्रेजी से ही होगा । आज हिंदी यदि कहीं है तो वह भारत के गांवों में तो मिल सकती है लेकिन शहरों में कहीं नहीं है। हिंदी की जगह आज अंग्रेजी और हिंग्रेजी ने ले लिया है। हिंग्रेजी या अंग्रेजी हिंदी प्रदेश के लोगों की प्रिय भाषा बनती जा रही है। शहरों में विज्ञापन की भाषा मीडिया की भाषा, बोलचाल की भाषा, लिखने की भाषा, हस्ताक्षर की भाषा, पत्र-व्यवहार की भाषा, अंतरजाल (ई-मेल)भाषा, अपना रौब जबाने की भाषा, गाली गलौज की भाषा, शिक्षा की भाषा, संस्कार और समाज की भाषा अंगे्रजी या हिंग्रेजी है। और हम इस हिंग्रेजी को ही हिंदी कहते हैं या भावुकता में राष्ट्रभाषा या राजभाषा कहने लगे हैं। एक सरल, सहज, सुबोध और सर्वग्राह्य हिंदी का प्रयोग हमारे स्वभाव या आदत में अब नहीं रह गया है। इस लिए हमें आजादी के 66 वर्षों बाद भी ‘हिंदी दिवस’ मनाने की आवश्यकता पड़ रही है। जिस देश में हिंदी पली-बढ़ी, जहां इसे खाद-पानी और प्रकाश देकर उसे पल्वित-पुष्पित किया गया, आज उसी अपने देश में अपनी हिंदी ‘बेगानी भाषा’ बन गई है?
मैकाले ने जो स्वप्न कभी भारत में अंग्रेजी, अंग्रेजी राज, अंग्रेजी लोग (तन से भारतीय) और अंग्रेजी संस्कार के देखे थे, वे आज चारों ओर फलते-फूलते दिखाई पड़ रहे हैं। एक गुलामी की भाषा अंग्रेजी हमारे श्वासों में बस गई है और एक अपने माटी और धरती की भाषा पराई हो गई है। जहां तक हिंदी और अंग्रेजी के सामथ्र्य, व्याकरण और शब्द भण्डार का सवाल है, उसमें हिंदी अंग्रेजी से कहीं बहुत आगे है। लेकिन, हिंदी के अधिकांश शब्दों को हम न तो अपने बोल चाल की भाषा में प्रयोग करने के लिए आतुर दिखते हैं-जैसा की अंग्रेजीमें। और न तो रोजगार की भाषा बनाने के लिए ही हिंदी को हम अपना रहे हैं। इसके बावजूद हम कहते हैं-हिंदी तो भारत की भाषा है, वह कहां जाएगी। हम हिंदी तो बोलते ही हैं। और दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है, इसलिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है। अंग्रेजी कम्प्यटूर की भाषा है, इस लिए उसे सीखना जरूरी है। अंग्रेजी में विज्ञान और साहित्य अधिक है, इस लिए उसे बढ़ाना जरूरी है। इन सभी पुराने तर्कों को यदि हम मान भी लें तो सवाल यह है कि हिंदी विज्ञान की भाषा क्यों नहीं बन पाई? हिंदी विश्व भाषा क्यों नहीं बन पाई? हिंदी विज्ञापन की भाषा क्यों नहीं बन पाई? हिंदी रोजगार की भाषा क्यों नहीं बन पाई? हिंदी भारत की पहचान की भाषा क्यों नहीं बन पाई? हिंदी सब की चहेती क्यों नहीं बन पाई? इतने सारे प्रश्न हिंदी के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जोडते हैं। आखिर हम कब हिंदी केवल हिंदी और केवल हिंदी के बारे में सोचना प्रारम्भ करेंगे?
भारत में कुछ लाख लोगों की भाषा ही अंगे्रजी है। विश्व में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी से कम है। लेकिन हम इस सच्चाई को दफन करके अंग्रेजी के पीछे ऐसे पड़ गए हैं जैसे वह ही हमारी माटी, थाती और संस्कृति की भाषा रही है। इससे ही हमारे पूर्वजों के श्वास का रिश्ता रहा है। यदि भारत के दो लाख अंग्रेजी भाषियों को छोड़ दिया जाए तो बाकी करोड़ों की आबादी सोते समय जो स्वप्न देखती है वह अपनी प्रदेश की भाषा में ही तो देखती है। फिर, स्वप्न देखते तो हम अपनी मातृभाषा में और कार्य करते हैं, एक गुलामी की विेदेशी भाषा- अंगे्रजी में? ऐसा क्यों? दुनिया में किसी भी देश में ऐसा विरोधी स्वभाव का समाज नहीं दिखाई देता है। हम अपने आप से कभी क्या ऐसे सवाल कर पाए हैं? क्या, हस्ताक्षर करते समय, पता लिखते समय, पत्र लिखते समय, बोलते समय या कुछ लिखते समय एक पल के लिए भी रुक कर सोचते हेंै कि इसकी जगह क्या हम अपनी मातृभाषा का प्रयोग नहीं कर सकते थे? हिंदी में बोलते समय क्या हम कभी सोचते हैं कि हम बोलते समय क्या उन अंग्रेजी शब्दों की जगह हिंदी शब्दों का सहज प्रयोग नहीं कर सकते थे? लेकिन नहीं, हमने इस मामूली समझी जाने वाली, लेकिन अतिमहत्त्व बात पर कभी एक पल भी सोचने के लिए तैयार नहीं हुए और न हैं ही। हमारे राजनेताओं में हिंदी भाषा भाषियों में अधिक, हिंदी को लेकर हीन भावना है। वह अंग्रेजी बोलकर स्वयं राजानक समझते हैं। वहीं पर जापान का साम्राट और श्रमिक दोनों जापानी बोलते हैं और जापानी में ही लिखते हैं। एक देवपुत्र और राष्ट्र का ऐतिहासिक प्रतीक है और दूसरा उसका प्रतिष्ठित नागरिक। दोनों जापान के मानस पुत्र हैं। क्या यह भारत में आज संभव नहीं है?
क्या हम शिक्षित होकर अपनी मातृभाषा के सामथ्र्य के बारे में कभी सोचते हैं? हम अपनी मातृभाषा के सामाजीकरण के बारे में नहीं कभी सोचते हैं? हम मातृभाषा के संस्कार देने के अति महत्त्वपूर्ण कार्य के बारे में कभी सोचते हैं? नहीं सोचते हैं। अब सवाल यह है, कौन सोचेगा और कब सोचा जाएगा? हम नई पीढ़ी को देवनागरी लिपि की जगह यूरोपीय लिपि शिक्षा के माध्यम से सिखा दिए हैं । उसे देवनागरी के न तो अंकों के बारे में कोई जानकारी है और न तो वह अक्षरों व शब्दों का चयन ही ठीक से कर पाता है। आने वाले कुछ वर्षों में हिंदी के साथ जो सबसे बड़ा संकट आने वाला है वह यह है कि नई पीढ़ी तथाकथित हिंदी-जो वास्तव में हिंग्रेजी होगी या हिंदी -जिसे वह हिंदी मानकर प्रयोग करता होगा वह देवनागरी लिपि में न लिखकर यूरोपीय लिपि में लिखना अधिक सहज, सरल और अपने आदत के अनुकूल समझेगा। यानी देवनागरी गई। हिंदी गई। हिंदीपना गया। हिंदी का सब कुछ गया। ऐसे में क्या वह पीढ़ी भारतीय होते हुए मानसिक रूप से अंगे्रज नहीं हो गई होगी? हिंदी का खत्म होने का मतलब अवधी, भोजपुरी, बघेली, मालवीय, राजस्थानी, हिमांचली, मगधी और अंगिका के विशाल लोक साहित्य का खात्मा। हिंदी के खत्मे का मतलब अवधी और भोजपुरी में गाए जाने वाले बिरहा, कजरी, छपरहिया, बेलवरिया, होली, फगुआ, पूर्वी, कहरवा, सोहर, संसकार गीत, कृषि गीत और जांत तथा निराई के गीतों को हमेशा के लिए खात्मा। इस लिए हिंदी बचेगी तभी ये सभी प्रवृतियां भी बचेंगी। हिंदी बचेगी तभी लोक कलाएं बचेंगी। हिंदी बचेगी तभी गांव की मौलिकता और जीवंतता बचेगी।
विेदेशीं, जिसने भारत आकर हिंदी सीखी वे बहुत गर्व के साथ शुद्ध हिंदी बालते है। कोई असुविधा होने पर साॅरी नहीं बल्कि ‘क्षमा’ बोलते है। आंटी या अंकल की जगह चाची और चचा ही बालते हैं। लेकिन हम हिंदी देश के रहने वाले अपने रिश्तों, अपने व्यवसायों, अपने संस्कारों, अपने संवाद और अपने हस्ताक्षर में हिंदी के प्रयोग में हीनता का अनुभव करते हैं। यहां तक कि उत्तर भारत के परिवारों में पढ़ी-लिखी महिलाएं और लड़कियां भी पूरी तरह से हिंग्रेजी-स्परूप में ढलती जा रही है। यह असली संकट है हिंदी के लिए। परिवारों मंे हिंदी की जगह धीरे-धीरे हिंग्रेजी लेने लगी है। फिर हिंदी कहां मुस्कराएगी? केवल कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों या हिंदी पखवाड़ों में? मीडिया, सरकार के राजकाज में, व्यवसाय में, रोजगार में, शिक्षा और संवाद में अंगे्रजी या हिंग्रेजी ने अपने पांव पूरी तरह से जमा लिये हैं, ऐसे में हम केवल हिंदी पखवाड़ा, हिंदी मास या हिंदी दिवस मनाकर हिंदी की विजय पताका फहराने की बात सोचे , तो यह हिंदी के लिए नहीं हमारे लिए शर्म की बात है।
हिंदी के संस्कृतपना, हिंदी के संस्कृतिपना, हिंदी के सामाजीकरण, हिंदी के संस्कारपना के संबंध में कभी सोचने का वक्त आजादी के बाद से निकाल पाए हैं? फिर हिंदी अपने सहज, सरल और शुद्ध स्वरूप में आगे बढती और कैसे बचती? केवल हिंदी का जुबानी बखान या जुगाली करने मात्र से हिंदी की स्थिति सुधरने वाली नहीं है। हिंदी भारत की है, भारत वालों की है, भारतीय संस्कारों की है, भारतीय समाज की सबसे श्रेष्ठ, सामथ्र्यवान और वैज्ञानिक भाषाओं में सबसे श्रेष्ठ भाषाओं में से एक है, यह स्वीकारता, भाव, सम्मान और आदर हमारे अंदर जब तक नहीं आएगा तब तक हिंदी अपने बेचारगी पर रोते रहेगी। आवश्यकता यह भी है कि हिंदी को अनुसंधान, प्रशासन, उद्योग, व्यवसाय और राजनेताओं की मुंह बोली और प्रतिष्ठित भाषा के रूप में आगे बढ़ाने की। जापान, फ़्रांस, जर्मनी और रूस तथा चीन की तरह हमें अपनी भाषा को प्रतिष्ठा देना, उसको उसका अधिकार देना, उसका प्रचार-प्रसार करना और उसका शासन व प्रशासन से लेकर हर स्तर पर प्रयोग करना आ जाएगा, तब भारत वास्तव में भारत बन जाएगा। भारत और इंडिया तब एक देश में देो देश नहीं होंगे।

— अखिलेश आर्येन्दु

अखिलेश आर्येंदु

चिंतक, पत्रकार और समाजकर्मी पता-ए-11, त्यागी विहार, नांगलोई, दिल्ली-110041 मो. 9868235056