कविता

लौटना चाहता हूँ

जहाँ भीड़ में भी अकेला था, न कोई अपना और न कोई पराया था
मैं तो बस हंसता था, खिलखिलाता था और खुद से ही बातें किया करता था
जहाँ मैं खुद से भी बेगाना था और सब से अन्जान था
वस वही आदत फिर से लाना चाहता हूँ
मैं बस अपनी ही दुनिया में लौटना चाहता हूँ।

जहाँ न तो कोई दोस्त था और न ही कोई दुश्मन
न ही किसी के लिये दिल में घंटिया बजती थीं
और न ही कोई प्यारी सी लड़की किसी गली के नुक्कड़ पर मेरा इंतजार करती थी
जहाँ न कोई शहर था और न ही कोई रंगीन जहान
बस वहीं अकेला बैठकर बुलबुल की मीठी सी धुन सुनना चाहता हूँ
मैं बस अपनी ही दुनिया में लौटना चाहता हूँ।

चाहता हूँ कि एक अन्जान सी सुनसान सड़क हो
और मंजिल का कोई पता न हो
वस उस सड़क पर अकेला सारी दुनिया से अन्जान
खुद में ही खोया हुआ चलता चला जाऊँ
दुनिया की भीड़ से दूर किसी अन्जान जगह पर एक बसेरा चाहता हूँ
मैं फिर से पगलू बन जाना चाहता हूँ
मै सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ही दुनिया में लौटना चाहता हूँ।

दयाल कुशवाह

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