गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

सिमटने लगे हैं घर अब दादी के दौर के,
बिखरने लगे हैं लोग जब गाँव छोड़ के।

हो गया बड़ा मेरा गाँव, सरहद के छोर से,
बनने लगे मकां, जब घरों को तोड़ के।

सिमट गई नजदीकियां, मिटने के कगार तक,
देखे हैं जब से रिश्ते, बस पैसों से जोड़ के।

नहीं आता कोई काम, मुश्किल में आजकल,
अब जीने लगे हैं लोग, स्वार्थ से नाता जोड़ के।

नैतिकता का देखिये कितना हुआ पतन,
औलाद भी चलने लगी, अब मुहं मोड़ के।

डॉ अ कीर्तिवर्धन

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया

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